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प्रस्तावना .
इसलिए वे द्रव्यके आश्रित हैं और द्रव्यके परतन्त्र हैं । पदार्थ तो ठोस और अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखनेवाला होता है। यदि गुण-कर्मादि द्रव्यसे भिन्न पदार्थ हों तो 'अस्य द्रव्यस्य अयं गुणः'--'इस द्रव्यका यह गुण है' इत्यादि व्यपदेश नहीं हो सकता, क्योंकि उनका कोई नियामक नहीं है । समवाय व्यापक और नित्य है। वह भी उनका नियमन नहीं कर सकता। अन्यथा, जिस प्रकार महेश्वरमें ज्ञानका समवाय है उसी तरह आकाशमें उस (ज्ञान)का समवाय क्यों न हो जाय । अपि च, द्रव्य और गुण जब सर्वथा स्वतंत्र एवं भिन्न हैं तो उनमें समवाय कैसे हो सकता है-उनमें तो संयोग ही सम्भव है। ___यदि कहा जाय कि द्रव्य और गुण अयुतसिद्ध है । अतः उनमें समवाय ही सम्भव है, संयोग नहीं । संयोग तो युतसिद्धोंमें होता है । तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अयुतसिद्धत्व क्या है ? क्या अपृथक्सिद्धत्वका नाम अयुतसिद्धत्व है ? या पृथक्करणकी अशक्यताका नाम है अथवा कथञ्चित् तादात्म्यका नाम है ? यदि अपृथक्सिद्धत्वको अयुतसिद्धत्व माना जाय, तो वायु, धूप, छाया आदि भी अपृथक्सिद्ध हैं और इसलिए उनमें भी द्रव्य-गुणादिकी तरह समवाय होना चाहिए और उस हालतमें उन्हें एक मानना पड़ेगा। फलतः पृथिवी आदि नौ द्रव्योंका प्रतिपादन विरुद्ध तथा असंगत है। रूप, रस आदि भी अपृथसिद्ध हैं और पृथक् आश्रयमें नहीं रहते हैं। अतः चौबीस गुणोंका कथन भी असंगत हैं । इसलिए प्रथम पक्ष तो श्रेयस्कर नहीं है । द्वितीय पक्ष भी युक्त नहीं हैं, क्योंकि पृथक्करणको अशक्यता द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छहों पदार्थों में है । अतः इनमें भी भेद न होनेपर द्रव्यादि पृथक छह पदार्थोंकी भी मान्यता समाप्त हो जाती है । तीसरा पक्ष स्वीकार करनेपर जैन मान्यताका प्रसंग आवेगा, क्योंकि जैन दर्शनमें ही द्रव्य और गुणादिमें कथञ्चित् तादात्म्य स्वीकार किया गया है, वैशेषिक दर्शनमें नहीं। अतः कथञ्चित् तादात्म्यको छोड़कर समवाय सिद्ध नहीं होता और
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