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प्रमाणप्रमेयकलिका ज्ञान संनिकर्षके बिना ही कराती है। इसलिए संनिकर्ष अव्याप्त भी है। यतः संनिकर्ष अचेतन है अतः वह चेतनात्मक अज्ञान-निवृत्ति ( प्रमा) को पैदा नहीं कर सकता और इसलिए संनिकर्ष असम्भवि भी है । जान पड़ता है कि संनिकर्षको प्रमितिजनक-प्रमाण माननेमें वात्स्यायनके सामने ये सब आपत्तियाँ रही हैं और इसलिए उन्होंने ज्ञानको भी प्रमितिजनक स्वीकार किया है, पर वे संनिकर्षको प्रमाण माननेवाली पूर्व परम्पराको नहीं छोड़ सके । अस्तु । (उ) प्रमाणका निर्दोष स्वरूप :
दर्शनशास्त्र अध्ययनसे ऐसा मालूम होता है कि 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' अर्थात् 'जिसके द्वारा प्रमिति ( सम्यक् परिच्छित्ति ) हो वह प्रमाण है' इस अर्थमें प्रायः सभी दर्शनकारोंने प्रमाणको स्वीकार किया है। परन्तु वह प्रमिति किसके द्वारा होती है अर्थात् प्रमितिका करण कौन है ? इसे सबने अलग-अलग बतलाया है। जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं कि नैयायिक संनिकर्षसे अर्थ-ज्ञप्ति मानते हैं, अतः वे संनिकर्षको प्रमितिकरण बतलाते हैं । प्रभाकर ज्ञाताके व्यापारको, सांख्य इन्द्रियवृत्तिको, जयन्त भट्ट कारकसाकल्यको और बौद्ध' सारूप्य एवं योग्यताको प्रमितिकरण प्रतिपादन करते हैं । जैन दर्शन में स्वपरावभासक ज्ञानको प्रमितिका करण बतलाया गया है। इस प्रमाणप्रमेयकलिकामें इसीका समर्थन करते हुए उसे ही प्रमाणका निर्दोष लक्षण सिद्ध किया गया है तथा उसे स्वसंवेदी माननेमें मीमांसकोंके द्वारा उठायी गयी ‘स्वात्मनि क्रियाविरोध' आपत्तिका भी सयुक्तिक परिहार किया है ।
१. देखिए, इसी पुस्तकके पृष्ठ ३ का पादटिप्पण ।
२. देखिए इसी पुस्तकके पृष्ठ १७ तथा १८ के पादटिप्पण । तथा विशेषके लिए न्यायदी० प्रस्तावना पृ० १२ ।
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