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प्रस्तावना
सा सम्बन्ध हैं ? क्या तादात्म्य है या समवाय है या संयोग है ? यदि तादात्म्य है तो वह व्यापार श्रोत्रादिमात्र ही रहेगा और वे श्रोत्रादि सुप्तावस्था में भी विद्यमान रहती हैं तब उस समय भी अर्थपरिच्छित्ति होना चाहिए । यदि कहा जाय कि उनमें समवाय सम्बन्ध है तो समवाय तो एक, नित्य और व्यापक है तथा श्रोत्रादिका सद्भाव भी सर्वत्र है, ऐसी स्थिति में प्रतिनियत देश में व्यापारके होनेका नियम समाप्त हो जायगा' और अर्थ - परिच्छित्ति सर्वदा होगी। दूसरे, सांख्योंने समवायको स्वीकार भी नहीं किया। अगर उनका सम्बन्ध संयोग माना जाय तो वह इन्द्रियोंका व्यापार न होकर पृथक् द्रव्यपदार्थ बन जायगा, क्योंकि संयोग दो स्वतन्त्र द्रव्यपदार्थोंमें होता है । धर्म-धर्मी में नहीं । अतः इन्द्रियव्यापार इन्द्रियोंका धर्म सिद्ध नहीं होता । यदि उसे पृथक् पदार्थ माना जाय, तो वह उनका व्यापार नहीं कहा जा सकेगा, जैसे पृथक् घटादि पदार्थ इन्द्रियोंका व्यापार नहीं माने जाते । यदि व्यापार इन्द्रियोंसे अभिन्न है तो तादात्म्य पक्षमें जो दोष आता है वही दोष अभिन्न पक्षमें भी विद्यमान है ।
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तीसरे, इन्द्रियोंका व्यापार तैमिरिक रोगीको होनेवाले द्विचन्द्रज्ञान तथा संशय आदि मिथ्याज्ञानोंमें भी प्रयोजक होता है, पर वे ज्ञान प्रमाण नहीं हैं । अतः इन्द्रियोंके व्यापारको प्रमाण मानना संगत नहीं है । हाँ, ज्ञानमें कारण होनेसे उसे उपचारसे प्रमाण मानने में कोई आपत्ति नहीं है । मुख्य रूपसे तो ज्ञान ही प्रमाण है ।
(इ) कारकसाकल्य- परीक्षा :
जयन्त भट्ट और उनके अनुगामी वृद्ध नैयायिकोंका अभिमत है कि artofor अर्थ, आलोक, इन्द्रिय, आत्मा और ज्ञान आदि सभी कारणों
१.
'प्रतिनियतदेशवृत्तिरभिव्यज्येत् । ' - प्रमेयक० पृ० १९ ।
२. 'अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धिं विदधती बोधाऽबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम् । -न्यायमं० पृ० १२ ।
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