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________________ प्रस्तावना क्योंकि उसके साधनरूपमें उपस्थित किये जानेवाले हेतु, तर्क और प्रमाण द्वैतवादमें ही सम्भव हैं, अद्वैतमें नहीं।' द्वैतवादी सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसक और बौद्ध दार्शनिकोंने भी तत्त्वपर यद्यपि विस्तारसे विचार किया है, पर उन्होंने उसके एक-एक पहलूको ही मानकर उसको पूरा समझ लिया है। जैन दार्शनिकोंने उसपर गहरा और सूक्ष्म चिन्तन किया है और वे इस निष्कर्षपर पहुंचे हैं कि तत्त्व अनेकान्तस्वरूप है। आचार्य समन्तभद्रने 'आप्तमीमांसा' में तत्त्वको दो भागोंमें विभक्तकर उसपर विशद प्रकाश डाला है। उनके व्याख्याकार अकलङ्ग और विद्यानन्दने भी उनकी तत्त्व-व्यवस्थाको सुपुष्ट तथा पल्लवित किया है। यहां हम तत्त्वके भेदों एवं उपभेदोंको एक रेखाचित्र द्वारा दे रहे हैं, इससे उनके समझने में सुविधा मिलेगी। वह रेखाचित्र इस प्रकार है: १. अद्वैतैकान्त-पक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुद्धयते । कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात्प्रजायते ॥ -इत्यादि प्राप्तमी० का. २४ से २७ तक । २. यहाँ ज्ञातव्य है कि कारिका ७६ से ८७ तक (छठे और सातवें परिच्छेदमें ) ज्ञापक-प्रमाण-उपायतत्त्वकी और कारिका ८८ से ९१ तक ( आठवें परिच्छेदमें ) कारक-उपायतत्त्व-दैव तथा पुरुषार्थकी परीक्षा की गयी है और कारिका ९२ से ९५ तक ( नववें परिच्छेदमें ) दैव ( पुण्य तथा पाप) की उत्पत्तिके कारणोंकी मीमांसा की गयी है । कारिका ९६ से १०० तक ( दशवें परिच्छेदमें ) बन्ध-मोक्षकी तथा कारिका १०१ से ११३ तक प्रमाणके स्वरूप, उसके फल, नय और स्याद्वादकी व्यवस्था प्रतिपादित है। इस तरह समन्तभद्र की 'आप्तमीमांसा' वस्तुतः तत्त्वमीमांसा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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