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प्रस्तावना
श्रा-विद्वदङ्गना-सिद्धमिदानीमपि दृश्यते । एतत्प्रायस्तदन्यत्तु सु-बह्वाऽऽगम-भाषितम् ।।
-योगद्द० स० पृ० ११, श्लोक ५५ । . नरेन्द्रसेनने प्रमाणप्रमेयकलिकामें आचार्य प्रभाचन्द्रको पद्धतिका अनुसरण किया है और उनके प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रको तरह विकल्पों एवं तर्कों द्वारा वक्तव्य विषयोंकी समालोचना और ऊहापोह किया है। आरम्भमें 'ननु किं तत्त्वम् , तदुच्यताम्' इन शब्दोंके साथ तत्त्वसामान्यकी जिज्ञासा करके बादको उन्होंने प्रमाणतत्त्व और प्रमेयतत्त्वकी मीमांसा की है। (घ) बाह्य विषय-परिचय :
यद्यपि ग्रन्थकारने अन्यको स्वयं प्रकाशों या परिच्छेदोंको तरह किन्हीं विभागों या प्रकरणोंमें विभक्त नहीं किया है तथापि जहाँतक प्रमाणको मीमांसा है वहांतक प्रमाणतत्त्व-परीक्षा और उसके बाद प्रमेयतत्त्वकी मीमांसा होनेसे प्रमेयतत्त्व-परीक्षा, इस प्रकार दो प्रकरणोंमें इसे विभाजित किया जा सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थमें हमने ये दो प्रकरण कल्पित किये हैं और जिनका विषय-वर्णन इस प्रकार है।
१. 'प्रमाणतत्त्व-परीक्षा' प्रकरणमें प्रभाकरके 'ज्ञातृव्यापार', सांख्ययोगोंके 'इन्द्रियवृत्ति', जरनैयायिक भट्ट जयन्तके 'सामग्री' अपरनाम 'कारकसाकल्य' और योगोंके 'सन्निकर्ष' इन विभिन्न प्रमाण-लक्षणोंकी परीक्षा करके 'स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान' को प्रमाणका निर्दोष लक्षण सिद्ध किया है । ज्ञानके कारणोंपर विचार करते हुए नरेन्द्रसेनने इन्द्रिय और मनको ज्ञानका अनिवार्य कारण बतलाया है और जो अर्थ तथा आलोकको भी उसका अनिवार्य कारण मानते हैं उनकी उन्होंने सोपपत्तिक आलोचना की है। प्रमाणका साक्षात् और परम्परा फल बतलाकर उसे प्रमाणसे कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न प्रदर्शित किया है। बौद्ध अपने चारों
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