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प्राककथन
अहिंसालक्षणो धर्म इति धर्मविदो विदुः । यदहिंसात्मकं कर्म तत्कुर्यादात्मवानरः ॥
--महाभा० अनुशा० प०, ११६ अ०, १२ श्लो० । दर्शनकी परिभाषा :
_ 'दृश्यते यथार्थतया ज्ञायते पदार्थोऽनेनेति दर्शनम्' इस व्युत्पत्तिको लेकर 'दर्शन' शब्दका प्रयोग नेत्र, स्वप्न, बुद्धि, धर्म, दर्पण और शास्त्र इन छह अर्थो में किया गया है ।' आँखोंसे पदार्थ देखा जाता है, अतः आँखें दर्शन हैं। इसी तरह स्वप्न आदिसे भी पदार्थ जाना जाता है, इस कारण कोषकारोंने उन्हें भो 'दर्शन' शब्दका वाच्य कहा है । किन्तु जब इस सामान्यार्थप्रतिपादक 'दर्शन' शब्दका सम्बन्ध किसी मोक्षादि-तत्त्व-प्रतिपादक शास्त्रके साथ होता है तो प्रकरणवश यह 'दर्शन' शब्द उस अर्थविशेषशास्त्रका प्रतिपादक होता है। जैसे न्यायदर्शन, वेदान्तदर्शन, जैनदर्शन आदि । वहाँ 'दर्शन' शब्द अपने नेत्रादि अन्य अर्थोंका वाचक न होकर गौतमादि महर्षि प्रतिपादित न्यायादिशास्त्ररूप अर्थविशेषका वाचक होता है। जड-चेतनात्मक इस संसारमें सार क्या है ? इस दृश्यमान स्थूल जगत्की सृष्टि कैसे हुई ? इसमें अदृश्य सूक्ष्म तत्त्व क्या हैं ? हेय और उपादेय क्या है ? जीव और जड वस्तु क्या हैं ? नित्यानित्य तत्त्व क्या हैं ? प्रमाण
१. 'नेत्रे स्वप्ने बुद्धौ धर्मे दर्पणे शास्त्रे च दर्शनशब्दः।'
-मेदिनीकोष २. दर्शनशास्त्रसे होनेवाला तत्त्वज्ञान भी 'दर्शन' शब्दसे ग्राह्य हो सकता है।
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