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________________ प्रथमः समुद्देशः मतद्वयमाशङ्कय तन्निराकरणेन स्वमतमवस्थापयन्नाह तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ॥१३॥ सोपस्काराणि हि वाक्यानि भवन्ति । तत इदं प्रतिपत्तव्यम्-अभ्यासदशायां स्वतोऽनभ्यासदशायां च परत इति । तेन प्रागुक्तकान्तद्वयनिरासः । न चानभ्यासदशायां परतः प्रामाण्येऽप्यनवस्था समाना, ज्ञानान्तरस्याभ्यस्तविषयस्य स्वतः प्रमाणभूतस्याङ्गीकरणात् । अथवा प्रामाण्यमुत्पत्तौ परत एव, विशिष्टकारणप्रभवत्वाद्विशिष्ट कार्यस्येति । विषयपरिच्छित्तिलक्षणे प्रवृत्तिलक्षणे वा स्वकार्ये अभ्यासेतरदशापेक्षया क्वचित्स्वतः परतश्चेति निश्चीयते । ननूत्पत्तीविज्ञानकारणातिरिक्तकारणान्तरसव्यपेक्षत्वमसिद्धम् प्रामाण्यस्य तदितरस्यैवाभावात् । गुणाख्यमस्तीति वाङ्मात्रम्, विधिमुखन कार्यमखन वा गुणानामप्रतीतेः। नाप्यप्रामाण्यं स्वत एव, प्रामाण्यं तु परत एवेति विपर्ययः शक्यते कल्पयितुम्; दोनों मतों की आशङ्का कर उनके निराकरण पूर्वक अपने मत की स्थापना करते हुए कहते हैं। सूत्रार्थ-ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः और परतः होता है । ॥ १३ ॥ वाक्य उपस्कार ( शब्द से दूसरे शब्द का मिलाना ) सहित होते हैं। अतः यह अर्थ जानना चाहिए। ज्ञान की प्रमाणता अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में परतः होती है। इस कारक से पहले कहे गए दोनों एकान्तवादों का निराकरण हो जाता है। अनभ्यास दशा में परतः प्रामाण्य मानने पर जैनों के लिए भी समान रूप से अनवस्था दोष हो जायगा, ऐसा नहीं है; क्योंकि अभ्यस्त विषय स्वरूप अन्य ज्ञान की हमने प्रमाणतः स्वतः स्वीकार की है। अथवा ज्ञान की प्रमाणता उत्पत्ति अवस्था में परतः हो होती है, क्योंकि विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति विशिष्ट कारण से होती है। विषय के जानने रूप अथवा प्रवृत्ति लक्षण रूप ज्ञान के कार्य में प्रामाण्य अभ्यास से भिन्न दशा की अपेक्षा कहीं स्वतः और कहीं ( अनभ्यास दशा में ) परतः निश्चय किया जाता है। शङ्का-प्रमाण की उत्पत्ति में विज्ञान के कारण से भिन्न अन्य कारणों की अपेक्षा असिद्ध है, अतः प्रमाण की प्रमाणता स्वतः ही होती है। क्योंकि ज्ञानातिरिक्त कारण का अभाव है। यदि कहा जाय कि अन्य कारग नेत्रादिक की निर्मलता आदि गुण पाए जाते हैं, सो यह कहना वचनमात्र ही है, क्योंकि विधिमुख रूप प्रत्यक्ष से तथा कार्यमुख रूप अनुमान से गुणों की प्रतीति नहीं होती है। प्रमाण की अप्रमाणता स्वतः १. शब्देन शब्दान्तरमेलनमुपस्कारः, तेन सहितानि सोपस्काराणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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