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________________ प्रथमः समुद्देशः रात् सुव्यवस्थितमेव प्रमाणलक्षणम् । अस्य च प्रमाणस्य यथोक्तलक्षणत्वे साध्ये प्रमाणत्वादिति हेतुरत्रैव द्रष्टव्यः, प्रथमान्तस्यापि हेतुपरत्वेन निर्देशोपपत्तेः; प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं' इत्यादिवत् । सुव्यवस्थित है। इस प्रमाण के यथोक्त लक्षणत्व के साध्य होने पर प्रमाणत्व यह हेतु यहीं देखना चाहिए । प्रमाण पद प्रथमान्त होने पर भी इसका हेतु के रूप में निर्देश उचित है। जैसे 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं'–विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है। यहाँ प्रत्यक्ष धर्मी है, विशद ज्ञान साध्य है और प्रत्यक्षत्व हेतु है। टिप्पणकार ने एक अन्य उदाहरण दिया है-'गुरवो राजमाषा न भक्षणोया' यहाँ प्रथमान्त होने पर भी गुरुत्वाद्, यह हेतु है। विशेष—'मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्' इस सूत्र में सम्यग्ज्ञानों का सामान्य ज्ञान पद से संग्रह होने से हेतु हेतुमद्भाव के ज्ञापन के लिए 'ज्ञानम्' यह प्रथक् पद है। ज्ञान प्रमाण होने के योग्य है। क्योंकि वह अपने आपके और अपूर्वार्थ का निश्चय कराने वाला होने के कारण । यहाँ पर 'ज्ञानम्' इस विशेषण से अव्याप्ति दोष का परिहार है । 'व्यवसायात्मकम्' इस विशेषण से अतिव्याप्ति का निराकरण होता है। स्व पद से असम्भव दोष का निराकरण होता है। सामान्य का प्रत्यक्ष होने और विशेष का प्रत्यक्ष न होने तथा विशेष की स्मृति से संशय होता है। इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध सन्निकर्ष है। कारकों का समूह कारक साकल्य है। लघनैयायिक सन्निकर्ष और वद्धनैयायिक कारकसाकल्य मानते हैं। सांख्य इन्द्रियवत्ति को प्रमाण मानते हैं। प्रभाकर के अनुयायी अज्ञान रूप भी ज्ञातृव्यापार को प्रमाण मानते हैं । बौद्धों के अनुसार इन्द्रिय का ज्ञान इन्द्रिय ज्ञान है। जो इन्द्रिय के आश्रित ( इन्द्रियजन्य ) है, वह प्रत्यक्ष ( इन्द्रिय ज्ञान कहलाता है ) । समस्त चित्त ( विज्ञान ) और चैत्त ( विशेष अवस्था का ग्रहण करने वाले सुख आदि) पदार्थों का आत्मसंवेदन (या स्वसंवेदन) प्रत्यक्ष होता है। अपने ( स्व = इन्द्रिय के ) विषय (क्षण ) के अनन्तर होने वाला (समानजातीय द्वितीय क्षण ) है सहकारी जिसका ऐसे इन्द्रिय ज्ञान द्वारा समनन्तर प्रत्यय के रूप से उत्पादित ज्ञान मनोविज्ञान ( नामक प्रत्यक्ष ) है। यथार्थ वस्तु (क्षणिक वस्तु ) की भावना के प्रकर्ष पर्यन्त से उत्पन्न होने वाला योगियों का ज्ञान योगिप्रत्यक्ष है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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