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प्रमेयरत्नमालायां
इदानीं स्वपरपक्षसाधनदूषणव्यवस्थामुपदर्शयतिप्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भावितौ परिहृतापरिहृतदोषौ वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च ॥ ७३ ॥
वादिना प्रमाणमुपन्यस्तम्, तच्च प्रतिवादिना दुष्टतयोद्भावितम् । पुनर्वादिना परिहृतम्, तदेव तस्य साधनं भवति; प्रतिवादिनश्च दूषणमिति । यदा तु वादिना प्रमाणाभासमुक्तम्, प्रतिवादिना तथैवोद्भावितम् वादिना चापरिहृतम् तदा तद्वादिनः साधनाभासो भवति, प्रतिवादिनश्च भूषणमिति ।
अथोक्तप्रकारेणाशेषविप्रतिपत्तिनिराकरणद्वारेण
प्रमाणतत्त्वं स्वप्रतिज्ञातं
परीक्ष्य नयादितत्त्वमन्यत्रोक्तमितिदर्शयन्नाह
सम्भवदन्यद् विचारणीयम् ॥ ७४ ॥ सम्भवद्विद्यमानमन्यत्प्रमाणतत्त्वान्नय 'स्वरूपं शास्त्रान्तरप्रसिद्ध विचारणीयअब अपने पक्ष के साधन और परपक्ष के दूषण व्यवस्था को दर्शाते हैंसूत्रार्थ - वादी के द्वारा प्रयोग में लाए गए प्रमाण और प्रमाणाभास प्रतिवादी के द्वारा दोष रूप में प्रकट किए जाने पर वादी से परिहृत दोष वाले रहते हैं तो वे वादी के लिए साधन और साधनाभास हैं और प्रतिवादी के लिए दूषण और भूषण हैं ॥ ७३ ॥
वादी ने प्रमाण को उपस्थित किया, उसे प्रतिवादी ने दोष बतलाकर उद्भावन कर दिया । पुनः वादी ने उस दोष का निराकरण कर दिया तो वादी के लिए वह साधन और प्रतिवादी के लिए दूषण हो जायगा । जब वादी ने प्रमाणाभास कहा, प्रतिवादी ने दोष बतलाकर उसका उद्भावन कर दिया । तथा यदि वादी ने उसका परिहार नहीं किया तो वह वादी के लिए साधनाभास हो जायगा और प्रतिवादी के लिए भूषण होगा ।
उक्त प्रकार से समस्त विप्रतिपत्तियों के निराकरण द्वारा स्वप्रतिज्ञात प्रमाण तत्त्व की परीक्षा कर अन्य ग्रन्थों ( नयचक्रादि ) में नयादि तत्त्व कहे गए हैं, इस बात को दिखलाते हुए कहते हैं
सूत्रार्थ - सम्भव अन्य ( नय-निपेक्षादि ) भी विचारणीय हैं ॥ ७४ ॥ प्रमाण तत्त्व से भिन्न अन्य सम्भव अर्थात् विद्यमान, जो अन्य शास्त्रों १. अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नय इति नयसामान्यलक्षणम् । तदुक्तम्-
नयो वक्तृविवक्षा स्याद् वस्त्वंशे स हि वर्तते । द्विधाऽसौ भिद्यते मूलाद् द्रव्य-पर्यायभेदतः ॥
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