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________________ षष्ठः समुद्देशः २१७ समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥ ६३ ॥ सहकारिसान्निध्यात् तत्करणान्नेति चेदत्राह परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावात् ॥ ६४॥ वियुक्तावस्थायामकुर्वतः सहकारिसमवधानवेलायां कार्यकारिणः पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणापरिणामोपपत्तेरित्यर्थः। अन्यथा कार्यकरणाभावात् । प्रागभावावस्यायामेवेत्यर्थः। अथ द्वितीयपक्षे दोषमाह स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात्पूर्ववत् ॥ ६५ ॥ सूत्रार्थ-एकान्तात्मक तत्त्व समर्थ होता हुआ कार्य करेगा तो कार्य की सदा उत्पत्ति होना चाहिये; क्योंकि वह किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता है ।। ६३ ॥ ___ यदि कहा जाय कि वह पदार्थ सहकारी कारणों के सान्निध्य से उस कार्य को करता है, अतः कार्य की सदा उत्पत्ति नहीं होती है तो इसके विषय में कहते हैं सूत्रार्थ-दूसरे सहकारी कारणों की अपेक्षा रखने पर परिणामीपना प्राप्त होता है अन्यथा कार्य नहीं हो सकेगा । ६४ ॥ सहकारी कारणों से रहित अवस्था में कार्य नहीं करने वाले और सहकारी कारणों के सन्निधान के समय कार्य करने वाले पदार्थ के पूर्व आकार का परित्याग, उत्तर आकार की प्राप्ति और स्थिति लक्षण परिणाम के सम्भव होने से परिणामीपना सिद्ध होता है, यदि ऐसा न माना जाय तो कार्य करने का अभाव रहेगा, जैसा कि प्रागभाव दशा में कार्य का अभाव था। (जैसे मिट्टी के पिण्ड में पहले घट का अभाव है ) कार्य की उत्पत्ति नहीं मानेंगे तो समस्त वस्तुओं का समूह प्रागभाव अवस्था में ही विद्यमान हो जायेगा। अब असमर्थ रूप दूसरे पक्ष में दोष कहते हैं सूत्रार्थ-स्वयं असमर्थ पदार्थ कार्य का करने वाला नहीं हो सकता, जैसे कि सहकारी कारणों से रहित अवस्था में अपना कार्य करने में समर्थ नहीं था, उसी तरह सहकारी कारणों के मिल जाने पर भी कार्य नहीं कर सकेगा ।। ६५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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