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षष्ठः समुदेशः
२१५ सौगतसाङ्ख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयानांप्रत्यक्षानुमानाग - मोपमानार्थापत्त्यभावैरेकैकाधिकैव्याप्तिवत् ॥ ५७ ॥
यथा प्रत्यक्षादिभिरेककाधिकाप्तिः प्रतिपत्तु न शक्यते सौगतादिभिस्तथा प्रत्यक्षेण लोकायतिकैः परबुद्धयादिरपीत्यर्थः ।
अथ परबुद्धयादिप्रतिपत्तिः प्रत्यक्षेण माभूदन्यस्माद्भविष्यतीत्याशङ्क्याऽऽह__ अनुमानास्तद्विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम् ॥ ५८ ॥
तच्छब्देन परबुद्धयादिरभिधीयते । अनुमानादेः परबुद्धयादिविषयत्वे प्रत्यक्षकप्रमाणवादो हीयत इत्यर्थः ।
अत्रोदाहरणमाह
तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे प्रमाणान्तरत्वमप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् ॥ ५९॥
सौगतादीनामिति शेषः किञ्च प्रत्यक्षकप्रमाणवादिना प्रत्यक्षाद्य कैकाधिक
सूत्रार्थ-जिस प्रकार सौगत, सांख्य, योग, प्राभाकर और जैमिनीयों के प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान अर्थापत्ति और अभाव इन एक-एक अधिक प्रमाणों के द्वारा व्याप्ति विषय नहीं की जाती है ॥ ५७॥
जिस प्रकार एक-एक अधिक प्रत्यक्षादि से व्याप्ति नहीं जानी जा सकती है, उसी प्रकार एक प्रत्यक्ष प्रमाण से लौकायतिकों के द्वारा अन्य मनुष्य की बुद्धि आदि भी नहीं जाने जा सकते हैं।
शंका-पराई बुद्धि आदि का ज्ञान प्रत्यक्ष से भले ही न हो, अन्य अनुमानादि से हो जायेगा ? ऐसी आशङ्का होने पर कहते हैं
समाधान
सूत्रार्थ अनुमानादि के दूसरे की बुद्धि आदि का विषयपना मानने पर अन्य प्रमाण मानने पड़ेंगे। ५८ ॥
सूत्र में 'तत्' शब्द से पर बुद्धि आदि कहे गये हैं। अनुमानादि के परबुद्धि आदि के विषयपना मानने पर प्रत्यक्षक प्रमाणवाद विघटित हो जाता है । इस विषय में उदाहरण कहते हैं
सत्रार्थ-जैसे कि तर्क को व्याप्ति का विषय करने वाला मानने पर सौगतादिक को उसे एक भिन्न प्रमाण मानना पड़ता है; क्योंकि अप्रमाण ज्ञान पदार्थ की व्यवस्था नहीं कर सकता है ॥ ५९॥
सूत्र में "सौगतादीनाम्" यह पद शेष है। प्रत्यक्ष प्रमाणवादी चार्वाक को तथा प्रत्यक्षादि एक-एक अधिक प्रमाणवादी सौगतादिक को प्रत्यक्ष
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