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________________ षष्ठः समुदेशः १९३ कान्तात् । महेश्वरज्ञानेन च व्यभिचाराद्, व्याप्तिज्ञानेनाप्यनेकान्तादर्थप्रतिपत्त्ययोगाच्च । न हि ज्ञापकमप्रत्यक्ष ज्ञाप्यं गमयति; शब्दलिङ्गादीनामपि तथैव गमकत्वप्रसङ्गात् । अनन्तरभाविज्ञानग्राह्यत्वे तस्याप्यगृहीतस्य पराज्ञापकत्वात्तदनन्तरं कल्पनीयम् । तत्रापि तदनन्तरमित्यनवस्था। तस्मान्नायं पक्षः श्रेयान् । एतेन करणज्ञानस्य परोक्षत्वेनास्वसंविदितत्वं ब्रुवन्नपि मोमांसकः प्रयुक्तः; साध्य के अन्तर्गत हो जाने से धर्मीपना नहीं रह सकेगा। यदि धर्मी ज्ञान अपने आपको जानता है तो उस धर्मी ज्ञान के द्वारा ही वेद्यत्व हेतु के अनेकान्तना प्राप्त होता है। और महेश्वर ज्ञान से भी व्यभिचार आता है। महेश्वर का ज्ञान यदि अपने आपको नहीं जानता है तो वह सर्वज्ञता रूप नहीं होता है। यदि महेश्वर के ज्ञान को स्वसंविदिति मानो तो आपके मत की हानि होती है। दूसरी बात यह है कि महेश्वर के ज्ञान में ज्ञानान्तरवेद्यत्व नहीं है, वेद्यत्व है, इसलिए उससे व्यभिचार आता है। व्याप्ति के ज्ञान से भी व्यभिचार आता है, क्योंकि व्याप्ति ज्ञान में अन्य ज्ञान से व्यवधान का अभाव है। (ज्ञान स्व और पर का प्रकाशक है, क्योंकि उसमें ज्ञानपना है। जैसे-महेश्वर का ज्ञान । वह बिना किसो व्यवधान के अर्थ का प्रकाशक है अथवा अर्थ के ग्रहण करने स्वरूप है, जैसे-महेश्वर का ज्ञान । जो स्वपर प्रकाशक नहीं होता है, बिना किसी व्यवधान के अर्थ का प्रकाशक या अर्थ का ग्रहण करने वाला नहीं होता है, जैसे-चक्षुरादि)। जो अप्रत्यक्ष ज्ञान होता है, वह ज्ञेय अर्थ की जानकारी नहीं कराता है, अन्यथा शब्द और लिङ्ग (जैसे-जहाँ धूम है, वहाँ अग्नि है) आदि के भी स्वयं अप्रत्यक्ष रहते हुए गमकपने का प्रसंग आता है। ( मैंने यह कहा कि अप्रत्यक्ष ज्ञान जानकारी नहीं कराता है, यदि आप यह कहें कि ज्ञान स्वयं अप्रत्यक्ष रहते हुए पदार्थ की जानकारी करता है तो शब्द कान से सुने बिना ही पदार्थ की जानकारी कराए तथा धूप आँखों से देखे बिना ही अग्नि की जानकारी कराए)। यदि पूर्वज्ञान के अनन्तरभावी ज्ञान के द्वारा ग्राह्यता बन जाती है तो उस अनन्तरभावी अग्रहीत ज्ञान के भी पर की अज्ञापकता रहने से तदनन्तरभावी अन्य ज्ञान की कल्पना करनी चाहिए और उसके लिए भी अन्य तदनन्तरभावी ज्ञान की कल्पना करनी चाहिए, इस प्रकार अनवस्था दोष प्राप्त होता है। अतः ज्ञान अन्य ज्ञान से जानने योग्य है क्योंकि प्रमेय है, यह पक्ष श्रेयस्कर नहीं है । इसी कथन से ज्ञान की ज्ञानान्तरवेद्यता के निराकरण से करण ज्ञान के परोक्ष होने से अस्वसंविदितपना कहने वाले मीमांसक का भी निरा१३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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