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________________ १८१ चतुर्थः समुदेशः पटादीनामपि कथञ्चिद्भेदोपपत्तेः, सर्वथा प्रतिभासभेदस्यासिद्धेश्च; इदमित्याद्यभेदप्रतिभासस्यापि भावात् । ततः कथञ्चिद् भेदाभेदात्मकं द्रव्यपर्यायात्मकं सामान्यविशेषात्मकं च तत्त्वं तीरादर्शिशकुनिन्यायेनाऽऽयातमित्यलमतिप्रसङ्गेन । इदानीमनेकान्तात्मकवस्तुसमर्थनार्थमेव हेतुद्वयमाह अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तश्च ॥ २॥ ___ अनुवृत्ताकारो हि गोर्गीरित्यादिप्रत्ययः । व्यावृत्ताकारः श्यामः शबल इत्यादिप्रत्ययः । तयोर्गोचरस्तस्य भावस्तत्त्वम्, तस्मात् । एतेन तिर्यकसामान्यव्यतिरेकलक्षणविशेषद्वयात्मकं वस्तु साधितम् । पूर्वोत्तराकारयोयंथासङ्ख्येन परिहारावाप्ती, ताभ्यां स्थितिः सैव लक्षणं यस्य, स चासौ परिणामश्च, तेनार्थक्रियोपपत्तश्चेत्यनेन कहना ठीक नहीं है; क्योंकि भेद रूप प्रतिभास का अभेद रूप प्रतिभास के साथ कोई विरोध नहीं है। घट पटादि में भी कथञ्चित् भेद ठीक है सर्वथा प्रतिभास भेद की असिद्धि है। यह सत् है', इत्यादि अभेद प्रतिभास भी पाया जाता है। अतः कथञ्चित् भेदाभेदात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक, और सामान्य-विशेषात्मक ही तत्त्व है। जैसे जिसे तीर दिखाई नहीं दे रहा है ऐसे पूरुष को पक्षी दष्टिगोचर हआ। उस पक्षी का तीर ही आश्रय है, ऐसा बोध उस पुरुष को अपने आप हो जाता है, इसी न्याय से वस्तु अनेकान्तात्मक सिद्ध हो जाती है। इस प्रसंग में अधिक कहने से बस। अब अनेकान्तात्मक वस्तु के समर्थन के लिए ही दो हेतु कहते हैं सूत्रार्थ-वस्तु अनेकान्तात्मक है; क्योंकि वह अनुवृत्त और व्यावृत्त प्रत्यय की विषय है। तथा पूर्व आकार का परिहार और उत्तर आकार की प्राप्ति तथा स्थितिलक्षण परिणाम के साथ उसमें अर्थक्रिया पायी जाती है ॥ २॥ यह गौ है, यह भी गौ है, यह भी गौ है, इत्यादि प्रतीति को अनुवत्त प्रत्यय कहते हैं। यह श्याम वर्ण की है, यह शबल है इत्यादि व्यावृत्त प्रत्यय है। इन दो प्रकार के प्रत्ययों का विषय होना, उसके भाव को तत्व कहते हैं। उससे तत्त्व अनेकान्तात्मक सिद्ध होता है। इस कथन से तिर्यक् सामान्य और व्यतिरेक लक्षण विशेष, इस प्रकार द्वयात्मक वस्तु सिद्ध होती है। पूर्वाकार और उत्तराकार इन दोनों पदों का यथाक्रम से परिहार और अवाप्ति इन दोनों पदों के साथ सम्बन्ध करना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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