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चतुर्थः समुद्देशः
१७१. कस्य हि नानादेशकालकलाव्यापित्वं देशक्रमः कालक्रमश्चाभिधीयते । न च क्षणिके सोऽस्ति ।
यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदेव सः।
न देशकालयोाप्तिर्भावानामिह विद्यते ।। ३८ ॥ इति स्वयमेवाभिधानात् ।
न च पूर्वोत्तरक्षणानामेकसन्तानापेक्षया क्रमासम्भवति; सन्तानस्य वास्तवत्वे तस्यापि क्षणिकत्वेन क्रमायोगात् । अक्षणिकत्वेऽपि वास्तवत्वे तेनैव सत्त्वादिसाधनमन कान्तिकम् । अवास्तवत्वे न तदपेक्षः क्रमो युक्त इति । नापि योगपद्यन तत्रार्थक्रिया सम्भवति; युगपदेकेन स्वभावेन नानाकार्यकरणे तत्कार्यकत्वं स्यात् । नानास्वभाव कल्पनायां ते स्वभावास्तेन व्यापनीयाः । तत्रैकेन स्वभावेन तद्वयाप्ती तेषामेकरूपता। नानास्वभावेन चेदनवस्था । अथैकत्रैकस्योपादानभाव एवान्यत्र
देशकृत और कालकृत क्रम का होना असम्भव है। अवस्थित एक पदार्थ के नाना देश में व्याप्त होकर रहने को देशक्रम और नाना काल कलाओं में व्याप्त होकर रहने को कालक्रम कहते हैं। क्षणिक पदार्थ में वह सम्भव नहीं है।
श्लोकार्थ-जो पदार्थ जिस देश में उत्पन्न हुआ है, वह वहीं विनष्ट होता है और जो पदार्थ जिस काल में उत्पन्न हुआ है, वह भी उसी समय विनाश को प्राप्त होता है। इसलिए पदार्थों की क्षणिक पक्ष में देशक्रम और कालक्रम की अपेक्षा देश और काल की व्याप्ति नहीं है ॥३८॥
इस प्रकार बौद्धों ने स्वयं कहा है।
पूर्व और उत्तर क्षणों का एक सन्तान की अपेक्षा क्रम सम्भव नहीं है। सन्तान को वास्तव मानने पर उस सन्तान के भी क्षणिक होने से क्रम नहीं बनता है। सन्तान नित्य मानने पर भी सन्तान में ही सत्त्वादि साधन अनेकान्तिक हो जाता है। सन्तान के अवास्तविकपने के होने पर सन्तान की अपेक्षा क्रम युक्त नहीं है। एक साथ भी क्षणिक पदार्थ में अर्थक्रिया सम्भव नहीं है। युगात् एक स्वभाव से क्षणिक के नाना कार्य करने पर उन कार्यों के एकत्व सिद्ध होता है। नाना स्वभाव से क्रिया करता है, ऐसी कल्पना करने पर वे स्वभाव उस क्षणिक वस्तु के साथ व्याप्त होकर रहने चाहिए। उनमें एक स्वभाव से क्षणिक पदार्थ के नाना स्वभावों की व्याप्ति मानने पर उन नाना स्वभावों के एकरूपता आपत्ति प्राप्त होती है। यदि नाना स्वभाव से क्षणिक पदार्थ के साथ
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