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तृतीयः समुदेशः
११३ सुगममेतत् ।
तत्रोपलब्धिर्विधिसाधिकैव । अनुपलब्धिः प्रतिषेधसाधिकैवेति परस्य नियम विघटयन्नुपलब्धरनुपलब्धरनुपलब्धश्चाविशेषेण विधि-प्रतिषेधसाधनत्वमाह
उपलब्धिविधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ॥ ५४ ॥ गतार्थ मेतत् ।
इदानीमुपलब्धेरपि संक्षेपेण विरुद्धाविरुद्धभेदाद् द्वैविध्यमुपदर्शयन्नविरुद्धोपलब्धर्विधी साध्ये विस्तरतो भेदमाहअविरुद्धोपलब्धिविधौ षोढा-व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् ॥ ५५ ॥
पूर्वं च उत्तरं च सह चेति द्वन्द्वः । पूर्वोत्तरसह इत्येतेभ्यश्चर इत्यनुकरणनिर्देशः, द्वन्द्वात् श्रूयमाणश्चरशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । तेनायमर्थः-पूर्वचरोत्तरचरसहचरा इति । पश्चाद् व्याप्यादिभिः सह द्वन्द्वः ।
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यह सूत्र सुगम है।
उपलब्धि विधि की साधिका ही है, अनुपलब्धि प्रतिषेध की साधिका ही है, इस प्रकार दूसरे मत वालों के नियम का निषेध करते हुए आचार्य कहते हैं कि उपलब्धि और अनुपलब्धि सामान्य रूप से विधि और प्रतिषेध के साधक हैं।
सूत्रार्थ-उपलब्धि रूप हेतु विधि और प्रतिषेध दोनों का साधक है तथा अनुपलब्धि भी दोनों का साधक है ॥ ५४॥
इस सूत्र का अर्थ कहा जा चुका है।
इस समय उपलब्धि के भी संक्षेप से विरुद्ध-अविरुद्ध भेद से दो भेद बतलाते हुए अविरुद्धोपलब्धि के विधि को सिद्ध करने में विस्तार से भेद कहते हैं
सत्रार्थ-अस्तित्व साध्य होने पर अविरुद्धोपलब्धि व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्व, उत्तर और सहचर के भेद से छह प्रकार की है ।। ५५ ॥ _ 'पूर्वं च उत्तरं च सह च' इसमें द्वन्द्व समास है। पूर्व, उत्तर और सह पद के साथ चर शब्द का अनुकरण निर्देश करना। द्वन्द्व समास से पीछे सुना गया चर शब्द प्रत्येक के साथ लगाना चाहिये । इससे यह अर्थ होता है-पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर। पश्चात् व्याप्य आदि पदों के साथ द्वन्द्व समास करना चाहिये।
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