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________________ तृतीयः समुदेशः तस्य स्वार्थानुमानस्यार्थः साध्यसाधनलक्षणः। तं परामृशतीत्येवं शीलं तदर्थपरामर्शि । तच्च तद्वचनं स तस्माज्जातमुत्पन्नं विज्ञानं परार्थानुमानमिति । ननु वचनात्मकं परार्थानुमानं प्रसिद्धम् । तत्कथं तदर्थप्रतिपादकवचनजनितविज्ञानस्य परार्थानुमानत्वमभिदधता न संगृहीतमिति न वाच्यम्; अचेतनस्य साक्षात्प्रमितिहेतुत्वाभावेन निरुपचरितप्रमाणभावाभावात् । मुख्यानुमानहेतुत्वेन तस्योपचरितानुमानव्यपदेशो न वार्यत एव । तदेवोपचरितं परार्थानुमानत्वं तद्वचनस्याऽऽचार्यः प्राह तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् ॥५२॥ से ) जो धुएँ से अग्नि का ज्ञान उत्पन्न होता है, वह परार्थानुमान है। वचन के बिना जो धूमादि साधन से अग्न्यादि साध्य का ज्ञान होता है, वह स्वार्थानुमान है, यह इन दोनों में भेद है। उस स्वार्थानुमान का अर्थ जो साध्य-साधन लक्षण वाला पदार्थउसे विषय करना जिसका स्वभाव है, उसे तदर्थपरामशि कहते हैं। तदर्थपरामशिवचनों से जो विज्ञान उत्पन्न होता है, वह परार्थानुमान है। विशेष-यह पर्वत अग्नि वाला है, धुएँ वाला होने से, इस प्रकार के वचन सुनने से ही पहले धुएँ का ज्ञान होता है, बाद में उससे अग्नि का ज्ञान होता है, यह अभिप्राय है। वचन के साक्षात् अनुमानपना नहीं है, अपितु वचन से उत्पन्न ज्ञान के अनुमानपना है, वचन के अनुमानपना उपचार से है। नैयाधिक-(पञ्च अवयव रूप ) वचनात्मक परार्थानुमान प्रसिद्ध है। तो अनुमान के विषयभूत अर्थ के प्रतिपादक वचनों से उत्पन्न हुए विज्ञान को परार्थानुमान कहने वाले जैन ने उस लक्षण का संग्रह क्यों नहीं 'किया ? जैन-यह नहीं कहना चाहिये। क्योंकि अचेतनवचन साक्षात् प्रमिति रूप अज्ञान की निवृत्ति में हेतु नहीं हो सकते । उन वचनों के निरूपचरित प्रमाणता का अभाव है। ज्ञानरूप अनुमान के हेतु होने से उन वचनों की उपचरित अनुमान संज्ञा का निश्चित रूप से कोई वारण नहीं कर सकता। वही ( परार्थानुमान के प्रतिपादक वचन ) उपचार से परार्थानुमान हैं अतः परार्थानुमान के प्रतिपादक वचन के विषय में आचार्य कहते हैं सूत्रार्थ परार्थानुमान के कारण होने से परार्थानुमान के प्रतिपादक वचनों को भी परार्थानुमान कहते हैं ।। ५२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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