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________________ तृतीयः समुद्देशः तच्च साध्यं धर्मः किं वा तद्वि शिष्टो धर्मीति प्रश्ने तभेदं दर्शयन्नाह साध्यं धर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मों ॥ २१॥ सोपस्काराणि वाक्यानि भवन्ति । ततोऽयमर्थो लभ्यते-व्याप्तिकालापेक्षया तु साध्यं धर्मः । क्वचित्प्रयोगकालापेक्षया तु तद्विशिष्टो धर्मी साध्यः । अस्यैव धर्मिणो नामान्तरमाह पक्ष इति यावत् ॥२२॥ ननु धर्म-धर्मिसमुदायः पक्ष इति पक्षस्वरूपस्य पुरातननिरूपितत्वाद्धर्मिणस्तद्वचने कथं न राद्धान्तविरोध इति ? नवम्; साध्यधर्माधारतया विशेषितस्य धर्मिणः पक्षत्ववचनेऽपि दोषानवकाशात् । रचनावैचित्र्यमात्रेण तात्पर्यस्यानिराकृतत्वात् सिद्धान्ताविरोधात् । ___ अत्राहं सौगतः-भवतु नाम धर्मी पक्षव्यपदेशभाक्; तथापि सविकल्पकबुद्धी परिवर्तमान एव, न वास्तवः । सर्व एवानुमानानुमेयव्यवहारो बुद्धयारूढेन धर्म वह साध्य क्या धर्म होता है अथवा धर्म विशिष्ट धर्मी, ऐसा प्रश्न होने पर उसका भेद दिखाते हुए कहते हैं सूत्रार्थ-कहीं पर धर्म साध्य होता है और कहीं पर धर्म विशिष्ट धर्मी ॥ २१ ॥ वाक्य अध्याहार सहित होते हैं। अतः यह अर्थ प्राप्त होता हैव्याप्तिकाल की अपेक्षा तो साध्य धर्म होता है। कहीं पर प्रयोगकाल की अपेक्षा धर्म से विशिष्ट धर्मी साध्य होता है । इसी धर्मी का दूसरा नाम कहते हैंसूत्रार्थ-उस धर्मी को पक्ष कहते हैं ॥ २२ ।। शङ्का-धर्म और धर्मी के समुदाय को पक्ष कहते हैं, ऐसा पक्ष का स्वरूप अकलंक देवादि ने निरूपित किया है। धर्मी को ही पक्ष कहने पर सिद्धान्त से विरोध कैसे नहीं होगा? समाधान-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि साध्यधर्म के आधार से विशेषित धर्मी को पक्ष कहने पर भी दोष का अवकाश नहीं है। धर्मधर्मी समुदाय पक्ष है, इस प्रकार रचना के वैचित्र्य मात्र से ही तात्पर्य का निराकरण नहीं किए जाने से सिद्धान्त का विरोध नहीं आता है । बौद्ध-धर्मी पक्ष नाम को भले ही पाये, तथापि सविकल्पबुद्धि में हो वर्तमान है, वास्तविक नहीं । ( जैसे-केशोण्डुक ज्ञान ) । समस्त ही अनुमान-अनुमेय का व्यवहार विकल्पबुद्धि से गृहीत धर्म-धर्मी के न्याय से होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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