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प्रमेयरत्नमालायां
दसभत्ति संगहो । इनके अतिरिक्त मूलाचार और तिरुक्कुरल भी आचार्य कुन्दकुन्द कृत माने जाते हैं । कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने ८४ पाहुडों की रचना की थी, किन्तु वर्तमान में कुछ ही उपलब्ध हैं। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने तत्कालीन विभिन्न दृष्टियों का समन्वय किया है । द्रव्य का आश्रय लेकर उन्होंने सत्कार्यवाद का समर्थन करते हुए कहा है कि द्रव्य दृष्टि से देखा जाय तो भाव वस्तु का कभी नाश नहीं होता और अभाव की उत्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार द्रव्य दृष्टि से सत्कार्यवाद का समर्थन करके आचार्य कुन्दकुन्द ने बौद्धसम्मत असत्कार्यवाद का समर्थन करते हुए कहा है"गुण और पर्यायों में उत्पाद और व्यय होते हैं । अतएव यह मानना पड़ेगा कि पर्याय दृष्टि से सत् का विनाश और असत् की उत्पत्ति होती है।
औपनिषदिक दर्शन, विज्ञानवाद और शून्यवाद में वस्तु का निरूपण दो दृष्टियों से होने लगा था-एक पारमार्थिक दृष्टि और दूसरी व्यावहारिक दृष्टि । तत्त्व का एक रूप पारमार्थिक और दूसरा सांवृतिक वर्णित है। एक भूतार्थ है तो दूसरा अभूतार्थ, एक अलौकिक है तो दूसरा लौकिक, एक शुद्ध है तो दूसरा अशुद्ध, एक सूक्ष्म है तो दूसरा स्थूल । जैन आगम में व्यवहार और निश्चय ये दो नय या दृष्टियाँ क्रमशः स्थूल-लौकिक और सूक्ष्म-तत्त्वग्राही मानी जाती रही हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मनिरूपण उन्हीं दो दृष्टियों का आश्रय लेकर किया है। आत्मा के पारमार्थिक शुद्ध रूप का वर्णन निश्चयनय के आश्रय से और अशुद्ध या लौकिक-स्थूल आत्मा का वर्णन व्यवहारनय के आश्रय से उन्होंने किया है।
आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि तत्त्व का वर्णन न निश्चय से हो सकता है, न व्यवहार से; क्योंकि ये दोनों नय अमर्यादित एवं अवाच्य को मर्यादित और वाच्य बनाकर वर्णन करते हैं। अतएव वस्तु का परमशुद्ध स्वरूप तो पक्षातिक्रान्त है, वह न व्यवहारग्राह्य है और न निश्चयग्राह्य । जैसे-जोव को व्यवहार के आश्रय से बद्ध कहा जाता है और निश्चय के आश्रय से अबद्ध कहा जाता है । स्पष्ट है कि जीव में अबद्ध का व्यवहार भी बद्ध की अपेक्षा से हुआ है। अतएव आचार्य ने कह दिया कि वस्तुतः जीव न बद्ध हैं और न अबद्ध, किन्तु पक्षातिक्रान्त है, यही समयसार है, यही परमात्मा है। १. भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो ।
गुणपज्जएसु भावा उप्पादवए पकुव्वं ति ॥-पंचास्तिकाय-१५ २. पं० दलसुख मालवणिया : आगम युग का जैनदर्शन, पृ० २४१ । ३. वही, प० २४७ । ४. कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं । __ पक्खादिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ॥-समयसार-१५२
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