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तृतीयः समुद्देशः इदमल्पं महद् दूरमासन्नं प्रांशु नैति वा ।
व्यपेक्षातः समक्षेऽर्थे विकल्पः साधनान्तरम् ।। १६ ।। एषां क्रमेणोदाहरणं दर्शयन्नाहयथा स एवायं देवदत्तः, गोसदृशो गवयः, गोविलक्षणो महिषः, इदमस्माद् दूरम्, वृक्षोऽयमित्यादि ॥ ६ ॥ आदिशब्देन
पयोऽम्बुभेदी हंसः स्यात् षट्पादैर्धमरः स्मृतः । सप्तपर्णस्तु तत्त्वज्ञैविज्ञयो विषमच्छदः ॥ १७ ।। पञ्चवर्णं भवेद् रत्नं मेचकाख्यं पृथुस्तनी। युवतिश्चैकशृङ्गोऽपि गण्डकः परिकीर्तितः ।। १८ ॥
शरभोऽप्यष्टभिः पादैः सिंहश्चारुसटान्वितः ।। १९ ।। उपमान प्रमाण कहते हैं तो वैधर्म्य से होने वाले साध्य के साधन रूप प्रमाण का नाम क्या होगा? ( यह वृक्ष है, इत्यादि ) नामादि रूप संज्ञा वाले संज्ञी पदार्थ के प्रतिपादन करने को कौन सा प्रमाण कहेंगे? यह इससे अल्प है, यह इससे महान् है, यह इससे दूर है, यह इसके समीप है, यह इससे ऊँचा है, यह इससे नीचा है तथा इसके निषेध रूप अर्थात् यह इससे अल्प नहीं है, यह इससे महान् नहीं है, इत्यादि रूप परस्पर की अपेक्षा से, प्रतिपक्ष की आकांक्षा से अन्य भाव का निश्चय रूप जो ज्ञान होता है, इन सबको पृथक् प्रमाणपत्र प्राप्त होता है। इससे आप लोगों द्वारा मानी हुई प्रमाण संख्या का विघटन हो जाता है । १५-१६ ।।
इन प्रत्यभिज्ञान के भेदों का क्रम से उदाहरण दिखलाते हुए कहते हैं
सत्रार्थ-जैसे—यह वही देवदत्त है (एकत्व प्रत्यभिज्ञान ), गाय के समान नील गाय होती है ( सादृश्य प्रत्यभिज्ञान), गो से विलक्षण भैंसा होता है ( वैलक्षण्य प्रत्यभिज्ञान ), यह इससे दूर है ( तत्प्रतियोगि प्रत्यभिज्ञान ), यह वृक्ष है ( वृक्ष सामान्य स्मृति रूप प्रत्यभिज्ञान ) इत्यादि ॥६॥
आदि शब्द से
श्लोकार्थ-दूध और जल का भेद करने वाला हंस होता है, छह पैर का भौंरा माना गया है, तत्त्वज्ञों को सात पत्तों वाला विषमच्छद नामक वृक्ष जानना चाहिये। पाँच वर्णों वाला मेचक नामक रत्न होता है, विशाल स्तन वाली युवती होती है, एक सोंग वाला गेंडा कहा जाता है,
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