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________________ REVIEWS AND OPINIONS ON ĀCĀRĀNGA डॉ. चन्द्र का प्रयास निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। आशा है वे सम्पूर्ण आचारांग एवं अन्य आगमों के प्राचीन भाषिक रूपों का भी निर्धारण करेंगे तथा विद्वान पाठक इससे लाभान्वित हो सकेंगे ।. डॉ. धर्मचन्द जैन 'साहित्य समीक्षा', _ 'जिनवाणी', जयपुर, अगस्त १९९८ यह पुस्तक जहाँ जैन आगमों के संपादन की अर्वाचीन परंपरा का आदर्श नमूना पेश करता है वहीं आपकी इस क्षेत्र की साधना का ज्वलंत प्रतीक बन गया है। पूज्य आगमप्रभाकरजी द्वारा व्यक्त की गई अभिलाषा आज आपके द्वाराभले एक अध्ययन के रूप में ही सही परिपूर्ण हुई है यह जैन संशोधन क्षेत्र की एक रोमहर्षक घटना कही जायगी। "संपत्स्यते हि मम कोऽपि समानधर्मा" - भवभूति की यह उक्ति यहाँ चरितार्थ होती है । जब मैं पालि भाषा के परिचय में आया तो एक प्रश्न उठा कि आगमों की भाषा भी उसी देशकाल की है तो दोनों में इतना अंतर क्यों ? आपका संपादित प्रथम अध्ययन देखने पर समाधान हुआ । अब पालि और अर्धमागधी में उतना ही अंतर मालूम होता है जितना कि दक्षिण और उत्तर गुजरात की गुजराती में हो सकता है। 'त्रिपिटक' बहुत पहले ही भारत से बाहर चले गए और वहां जैसे के तैसे रह गए । जैन आगमों को भिन्न भिन्न शतकों में जैन श्रमणों के बदलते हुए उच्चारों से प्रभावित होना पड़ा। आज के संशोधन-प्रधान और उचित सुविधापूर्ण समय में मूल भाषा तक पहुँचने के द्वार खुले हैं, फिर भी यह कार्य अत्यंत श्रमसाध्य है। इस ग्रन्थ के हर पृष्ठ पर आपके प्रचंड परिश्रम के दर्शन होते हैं । इस प्रकाशन के लिए आप को बधाई और इसी प्रणाली पर आचारांग, सूयगडंग जैसे प्राचीन आगमों का पुनः संपादन आपके हाथों से ही संपन्न हो यह मंगल कामना प्रेषित करता हूं। मुनि भुवनचन्द्र दिनांक : ४-८-९८ मोटी खाखर (कच्छ, गुजरात) 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001128
Book TitleIn Search of the Original Ardhamagadhi English Translation
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, N M Kansara, Nagin J Shah, Ramniklal M Shah
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages138
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Language, & Language
File Size7 MB
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