SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 523
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६९ श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण वह इस प्रकार है - एक आयतचतुरस्र क्षेत्र के ऊपर दूसरे आयतचतुरस्र क्षेत्र को उलटा करके रखने पर दो रज्जु की मोटाई वाला एक क्षेत्र हो जाता है । पुनः विष्कम्भ और उत्सेध का संवर्ग अर्थात् परस्पर गुणन करके वेद से गुणा करने पर उक्त क्षेत्र का घनफल होता है, जिसका प्रमाण ४३५१ x २- - १० २२१ इतना होता है । पुनः जो शेष चार त्रिकोण क्षेत्र हैं, उनका घनफल इस आयतचतुरस्र क्षेत्र के चतुर्थ भाग मात्र होता है । इसका कारण सुगम है, क्योंकि अधोलोक की प्ररूपणा में कह आये हैं । चूंकि इस प्रकार सर्व त्रिकोण क्षेत्रों के घनफल अनन्तर-अतिक्रान्त अर्थात् अभी पहले बताये गये क्षेत्रों के घनफल से चतुर्भाग के क्रम से अवस्थित है, इसलिए उनके घनफल को यहाँ अर्थात् १० २२६ में मिलाने पर १४ ४४८ इतना प्रमाण हो जाता है । ऊर्ध्व लोक का समस्त घनफल ५८६७.५ इतना होता है। विशेषार्थ :- ऊर्ध्व लोक का यह घनफल इस प्रकार आता है - ऊपर जो प्रमाण बतलाया गया है, वह प्रमाण ऊर्ध्व लोक के विभक्त किये गये दो भागों में से एक भाग का है, इसलिए दोनों खण्डों का घनफल लाने के लिए आयतचतुरस्र के क्षेत्र के घनफल को दूना किया, तब ११ २२ x २ = २२ २२२ हुआ । तथा त्रिकोण क्षेत्रों का भी घनफल दूना किया, तब १४ ४४८४३ - २९ २१८ हुआ । इस प्रकार ऊर्ध्व लोक की सूची का, आयतचतुरस्र और त्रिकोण क्षेत्रों का समस्त घनफल जोड़ देने पर ५ ४५२ + २२ २२६ + २९ ६७८ = ५८ १३५६ होता है। __ ऊर्ध्व लोक और अधोलोक का घनफल जोड देने पर १०६ १६६६ + ५८ ६३५६ = १६४ ३२८४ इतना प्रमाण होता है । इसलिए अन्य आचार्यों के द्वारा माना हुआ लोक घनलोक के संख्यातवें भाग प्रमाण सिद्ध हुआ और इस लोक के अतिरिक्त सात रजु के घन प्रमाण लोकसंज्ञक अन्य कोई क्षेत्र है नहीं, जिससे कि प्रमाण लोक छ: द्रव्यों के समुदाय रूप लोक से भिन्न माना जाये । और न लोकाकाश तथा अलोकाकाश, इन दोनों में ही स्थित सात रज्जु के घनमात्र आकाश-प्रदेशों के प्रमाण की घनलोक संज्ञा है, क्योंकि ऐसा मानने पर लोकसंज्ञा के यादृच्छिकपने का प्रसंग प्राप्त होता है।" इस प्रकार मृदंगाकार लोक का घनफल १६४ १३५६ घन रज्जु आता है। किन्तु अभीष्ट घनफल ३४३ घन रज्जु है; अतः मृदंगाकार लोकाकृति मान्य नहीं हो सकती ।। ___ अब श्वेताम्बर-परम्परा की मूल मान्यताओं के आधार पर हम लोकाकृति का निश्चय करना चाहते हैं । सर्व प्रथम हम अधोलोक को लें । मूल मान्यता के अनुसार अधोलोक की लम्बाई-चौड़ाई अधस्तन भाग पर ७ रज्जु है और उपरितन अन्त में एक रज्जु है । समान लम्बाई-चौड़ाई वाली समतल आकृति के दो विकल्प हो जाते हैं : १. वर्तुलाकार (सर्किल) २. समचतुरस्राकार (स्क्वे अर) मृदंगाकार आकृति में वर्तुलाकार लिया गया है, जबकि वर्गित खण्डूकों की संख्या निकालने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001107
Book TitleAgam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorJambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages560
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy