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________________ १६७ श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण वही कर्ण रेखा का प्रमाण समझना चाहिए।' उक्त प्रकार से उत्पन्न हुए इन तीन-तीन क्षेत्रों में एक-एक आयतचतुरस्र क्षेत्र और दो-दो त्रिकोण क्षेत्र जानना चाहिए । उनमें सात रज्जु उत्सेध वाले आयतचतुरस्र क्षेत्र के दाये-बांये दोनों ओर जो दो आयतचतुरस्र क्षेत्र हैं, उनमें प्रत्येक का साढ़े तीन रज्जु उत्सेध है । तथा दो सौ छब्बीस से एक रज्जु को खंडित कर उनमें एक सौ इकसठ खण्डों से अधिक चार रज्जु अर्थात् ४१६१ प्रमाण विष्कम्भ है। तथा दक्षिण और वाम (दांये-बांये) अधस्तन कोण पर तीन रज्जु बाहुल्य है । अन्य दक्षिण वाम कोणों पर यथाक्रम से ऊपर और नीचे डेढ़ रजु बाहुल्य है । अवशिष्ट दो कोनों पर एक आकाश प्रदेश-प्रमाण बाहुल्य है और अन्यत्र अर्थात् बीच में क्रम से वृद्धि को प्राप्त बाहुल्य है। इस प्रकार के दोनों आयतचतुरस्र क्षेत्रों को लेकर (उठाकर) उनमें एक क्षेत्र के ऊपर दूसरे क्षेत्र को विपर्यास अर्थात् उलटा करके स्थापित करने पर सर्वत्र तीन रज्जु बाहुल्य वाला क्षेत्र हो जाता है । इसके विस्तार को उत्सेध से गुणा कर पुनः वेध (मोटाई) से गुणा करने पर घनफल ४ १६१ x ३१ x ३ = ४९२१७ इतना हो जाता है । अब अवशिष्ट जो चार त्रिकोण क्षेत्र हैं, वे साढ़े तीन रज्जु उत्सेध वाले हैं, तथा दो सौ छब्बीस से एक रज्जु को खंडित कर उनमें से एक सौ इकसठ खंडों से अधिक चार रज्जु अर्थात् ४१६१ रज्जु प्रमाण भुजा वाले हैं। उन्हें कर्ण क्षेत्र से लगाकर दोनों ही पार्श्व भागों में बीच से छिन्न करने पर चार आयतचतुरस्र क्षेत्र और आठ त्रिकोण क्षेत्र हो जाते हैं । यहां पर चारों ही आयतचतुरस्र क्षेत्रों का घनफल पहले के दोनों आयतचतुरस्र क्षेत्रों के घनफल के चतुर्थ भाग मात्र होता है, क्योंकि चारों ही क्षेत्रों को बाहुल्य के अविरोध से इकट्ठा करने पर अर्थात् यथाक्रम से विपर्यास कर उलटा रखने पर तीन रज्जु बाहुल्य और पहले के क्षेत्र के विष्कम्भ और आयाम से अर्धमात्र विष्कम्भ और आयाम प्रमाण वाला क्षेत्र पाया जाता है। शंका - इन चार आयतचतुरस्र क्षेत्रों के मिलाने पर तीन रज्जु बाहुल्य कैसे होता है ? समाधान - क्योंकि, पहले बताये हुए आयतचतुरस्र क्षेत्र के बाहुल्य से इस समय के आयतचतुरस्र क्षेत्रों का बाहुल्य आधा ही है । और पहले के उनके उत्सेध की अपेक्षा अब के इनका उत्सेध भी आधा ही दिखाई देता है । ___ अब शेष रहे आठ त्रिकोण क्षेत्रों के पूर्व के समान ही खंडित करने पर उनमें सोलह त्रिकोण क्षेत्र और आठ आयतचतुरस्र क्षेत्र हो जाते हैं। पहले बताये गये चार आयतचतुरस्र क्षेत्रों का उत्सेध से, विष्कम्भ से और बाहल्य से अर्धप्रमाण निकाल कर आठों ही आयतचतुरस्र क्षेत्रों का घनफल अभी बताये गये चार आयतचतुरस्र क्षेत्रों के घनफल के चतुर्थ भाग मात्र होता है। इसी प्रकार सोलह, बत्तीस, चौसठ आदि क्रम से आयतचतुरस्र क्षेत्र पहलेपहले के आयतचतुरस्र क्षेत्र के घनफलों के चतुर्थ भाग मात्र घनफल वाले होते हुए तब तक चले जायेंगे १. इष्टो बाहुर्यः स्यात् तत्स्पर्धिन्यां दिशीतरो बाहुः । त्र्यमे चतुरस्रे वा सा कोटिः कीर्तिता तज्ज्ञैः॥ तत्कृत्योर्योगपदं कर्णः। - लीलावती क्षेत्रव्य १। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001107
Book TitleAgam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorJambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages560
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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