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________________ श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण १५४ है । इसी प्रकार अधोमुखी वृद्धि आदि है।" इन मान्यताओं का यदि स्वीकार किया जाये, तो ‘उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु बाहल्य' की कल्पना संगत नहीं होती है । इसलिए श्वेताम्बर-परम्परा के आचार्यों ने 'उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु' वाली मान्यताओ को स्वीकार नहीं किया है। दूसरी ओर ३४३ घन रज्जु वाली मान्यता भी वे स्वीकार करते हैं। मूल मान्यताओं को सुरक्षित रखते हुए, लोक के आकार का चिन्तन श्वेताम्बर ग्रन्थों में किया गया है। 'वर्गित लोकमान' में जिस पद्धति का उपयोग हुआ है, उससे लगता है कि आचार्यों ने समस्या को सुलझाने का गाणितिक आधारों पर प्रयत्न किया है। जिस प्रकार लोक के समग्र ५६ 'लम्बकोणीय समानान्तर षट्-फलकों' में विभाजन किया है, उससे यह लगता है कि वह प्रयत्न ‘आधुनिक समाकलनगणित' का एक प्रारम्भिक रूप है। 'वर्गित-लोकमान' में लिये गए वैमितिक मान लोक के वास्तविक वैमितिक-मान नहीं है, क्योंकि श्वेताम्बर-परम्परा की मूल मान्यता के अनुसार लोक की तिर्यक् वृद्धि-हानि का सातत्य होना चाहिए, जबकि 'वर्गित-लोकमान' में प्रत्येक खण्डूक में एक-सी लम्बाईचौड़ाई है। अतः स्पष्ट है कि 'वर्गित-लोकमान' में जिस आकार की कल्पना की गई है, वह केवल काल्पनिक है और विषम आकार वाले लोक का घनफल निकालने के लिए सुविधाजनक बनाया गया आकार है। लोक का कुल आयतन ३४३ घनरज्जु है, जिसमें अधोलोक का घनफल १९६ घनरज्जु और ऊर्ध्वलोक का घनफल १४७ घनरज्जु है, इस मान्यता का उल्लेख भी श्वेताम्बर ग्रन्थों में है। किन्तु १. संग्रहणीसूत्र की हस्तलिखित प्रति में से जो चित्र ग्लेसनहाप द्वारा लिखित देर जैनिजिमुस में छपा है, उसमें इस प्रकार विवरण दिया गया है : ऊर्ध्व संवर्तक : (धन) खण्डूक ९४०८ सूची (रज्जु) २३५२ प्रतर (रज्जु) ५८८ घन (रज्जु १४७ उभौ मिलितौ : (धन) खण्डूक २१९५२ अधो संवर्तक : (धन) खण्डूक १२५४४ सूची (रजु) ५४८८ सूची (रज्जु) ३१३६ प्रतर (रज्जु) १३७२ प्रतर (रज्जु) ७८४ घन (रजु) ३४३ घन (रजु) संवर्तित लोक स्थापना : २ १ | १ | ANWw ३/ इस चित्र में समग्र लोक को विभाजित कर तीन विमितियां सात-सात रज्जु किस प्रकार होती है, यह बताया गया है, ऐसा लगता है। लोक प्रकाश में भी समग्र लोक के (धन) खण्डूकों की संख्या २१९५२ बताई गई है। जैसेचतुर्भिर्गुणने त्वासां, खण्डुकान्येकविंशतिः । सहस्राणि नवशती, द्विपञ्चाशत्समन्विता ॥ - लोकप्रकाश, सर्ग १२, श्लोक १४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001107
Book TitleAgam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorJambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages560
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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