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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण
में गति करते हैं। उसी समय एक हजार वर्ष के आयुष्य वाले एक बालक का जन्म हुआ । उसके माता-पिता का आयुष्य समाप्त हो गया। बाद में उसका आयुष्य भी समाप्त हो गया। तत्पश्चात् उसकी हजार-हजार वर्ष की आयु वाली सात पीढ़ियां बीत गई। तब तक भी देव लोक के अन्त को नहीं पा सके । उसके बाद जब उनके नाम-गोत्र भी नष्ट हो गए, तब तक भी वे देव लोक के अन्त को नहीं पा सके । किन्तु उस समय तक उन्होंने जो अन्तर तय किया, वह शेष रहे भाग से बहुत अधिक था । तय किये हुए मार्ग से असंख्यातवां भाग केवल बाकी रह गया ।
इस शास्त्रीय उदाहरण के द्वारा लोक का आयतन कितना बड़ा है, इसकी एक झांकी मिलती है। किन्तु इसमें दिये गये गाणितिक तथ्य पूर्ण नहीं होने से 'लोक-आयतन' का यथार्थ गाणितिक निरूपण इस दृष्टान्त के द्वारा नहीं किया जा सकता; क्योंकि इस दृष्टान्त के पूर्ण गाणितिक विवेचन में दो बातों का ज्ञान आवश्यक है :
(१) देव जिस गति से चलते हैं, उस गति का यथार्थ मूल्य; (२) जितने समय में वे लोक का अधिकतर मार्ग पार कर लेते है, उसका यथार्थ मूल्य ।
प्रथम आवश्यकता की पूर्ति के लिए बलि-पिण्डों की नीचे गिरने की गति का ज्ञान होना चाहिए। किन्तु यह इसलिए सम्भव नहीं है कि 'गुरुत्व'-सम्बन्धी उन स्थलों के नियम ज्ञात नहीं है। दूसरी आवश्यकता की पूर्ति भी नहीं हो सकती; क्योंकि 'नाम-गोत्र के नष्ट होने का कोई निश्चित काल नहीं बताया गया है । इस प्रकार, यद्यपि उक्त दृष्टान्त से लोक के आयतन के यथार्थ मूल्य की जानकारी हमें नहीं हो सकती है, फिर भी लोक की अति-बृहत्ता का अनुमान तो हो ही सकता है।
'अलोकाकाश कितना बड़ा है ?' इसको समझाने के लिए उक्त दृष्टान्त से समानता रखने वाला अन्य दृष्टान्त दिया गया है । यहाँ पर आठ दिक्कुमारियां चार दिशाओं में और चार विदिशाओं में (पूर्व-उत्तर, उत्तर-पश्चिम, पश्चिम-दक्षिण, दक्षिण-पूर्व) बलि-पिण्डों को फेंकती है और चूलिका पर खडा हुआ देव इन सब को पृथ्वी पर पड़ने से पूर्व ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार की शीघ्र गति वाले दश देव अलोक के अन्त को पाने के लिए चलते है। ये देव पूर्वोक्त दृष्टान्त में बताये गये समय में अलोक का जितना भाग तय करते है, उससे बाकी का भाग अनन्त गणा अधिक है। अर्थात केवल अनन्तवां
१. छः देव तिर्यग्-लोक के मध्य से अपनी यात्रा आरम्भ करते हैं। पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण दिशाओं में चलने वाले देवों को लोक के अन्त तक जाने में 1 रज्जु की दूरी तय करनी पडेगी, जबकि ऊंची (ऊर्ध्व) दिशा में चलने वाले देव को 'सात रज्जु से कुछ कम' और अधो दिशा में चलने वाले देव को 'सात रज्जु से कुछ अधिक' अन्तर तय करना होगा । इस प्रकार सभी देव एक समान दूरी तय नहीं करेंगे। किन्तु समान समय में और समान वेग से चलने वाले, ये समान दूरी तय कर पायेंगे । अतः बताये गये समय में सभी का तय किया हुआ मार्ग, बाकी रहे मार्ग के असंख्यात गुणा अधिक है, यह बात कैसे हो सकती है ? इस तर्क का समाधान नवांगीटीकाकार श्री अभयदेवसूरि ने इस प्रकार किया है कि यदि लोक का आकार वस्तुतः जिस प्रकार है, उस प्रकार न मानकर घनचतुरस्राकार (Cube) के रूप में मान लिया जाये, तो उसके मध्य से सभी दिशाओं में समान अन्तर रह जायेगा। - देखें, भगवतीसूत्रवृत्ति, ११-१०-४२१ । २. देखें, भगवतीसूत्र, ११-१०-४२१ । ३. यह असद्भाव कल्पना है, क्योंकि वस्तुतः अलोक में गति हो ही नहीं सकती।
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