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________________ ७४ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय से लगा हुआ ही है; इसलिये फिर उससे आगे बढ़नेका मार्ग लम्बा पड़ जाता है। प्रारम्भकालमें ही जिससमय सांसारिक वासनाओंके कीचड़से निकलने की भावना करता है, उससमय ही उसे पूर्ण सुधारपर ले जाने का प्रयत्न करना चाहिये । यदि पूर्ण-सुधारके मार्गपर चला जाय, तब तो फिर उस उपदेशकी पूर्ण एवं महती सफलता कहना चाहिये । यदि वहांतक न भी जाय तो जघन्य मार्ग तो स्वयं पकड़ ही लेगा । परन्तु पहलेते ही जघन्यमार्गका उपदेश देनेसे, सम्भव है वह उसे भी न ग्रहण कर सके । यह एक स्वाभाविक बात लोकमें देखी जाती है कि किसीसे किसी वस्तुका त्याग कराया जाता है तो पहले उस निषेधनीय वस्तुके अवगुण ( दोष ) दिखाकर उसे सर्वथा छोड़नेकी प्रेरणा की जाती है । उस प्रेरणासे कोई कोई महात्मा उस वस्तुका सर्वथा सदाके लिये त्याग कर देते हैं और कोई वैसान कर उसे क्रम क्रमसे छोड़ते हैं । यही लोकमें उपदेश अथवा शिक्षण की पद्धति है । उसी पद्धतिका उपदेश श्रीआचार्य महाराजने बतलाया है। यह जो कहा गया है कि 'जिसकी थोड़ी शक्ति है, वह उच्चकोटिके व्रतादिक धारण नहीं कर सकता, करेगा तो छोड़ देगा; इसलिये उसे जघन्य उपदेश देना ही ठीक है' इसका उत्तर यह है कि थोड़ी शनि और अधिक शक्तिकी पहचान क्या है ? शरीरकी कृशता स्थूलता ? अथवा आत्माकी कमजोरी या बलवत्ता ? शरीरकी कृशता स्थूलता तो महाव्रत धारण करने न करने में साधन नहीं है, क्योंकि कृश शरीरवाले भी महाव्रत धारण करतेहुए देखे जाते हैं, स्थूल शरीरवाले नहीं भी देखे जाते; अथवा स्थूल शरीरवाले भी महाव्रत धारण करतेहुए देखे जाते हैं, कृश शरीरवाले नहीं भी देखे जाते; इसलिये कृश अथवा स्थूल शरीरके साथ तो महाव्रत धारण करनेकी व्याप्ति नहीं है । शरीर संबंधमें तो इतना ही विचार आवश्यक है कि वह नीरोग है अथवा सरोग है ? आंगोपांग ठीक कार्य करते हैं अथवा नहीं? मूल विचार आत्माकी कमजोरी अथवा बलवत्तासे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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