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संकल्प
‘णाणं पयासं' सम्यग्ज्ञान का प्रचार-प्रसार केवलज्ञान का बीज है। आज कलयुग में ज्ञान प्राप्ति की तो होड़ लगो है। पदवियाँ और उपाधियाँ जीवन का सर्वस्व बन चुकी हैं परन्तु सम्यग्ज्ञान की ओर मनुष्यों का लक्ष्य हो नहीं है।
जोवन में मात्र ज्ञान नहीं, सम्यग्ज्ञान अपेक्षित है। आज तथाकथित अनेक विद्वान् अपनो मनगढन्त बातों की पुष्टि पूर्वाचार्यों की मोहर लगाकर कर रहे हैं। ऊटपटांग लेखनियाँ सत्य की श्रेणो में स्थापित को जा रही हैं। कारण पूर्वाचार्य प्रणोत ग्रन्थ आज सहज सुलभ नहीं हैं और उनके प्रकाशन व पठन-पाठन की जैसी और जितनो रुचि अपेक्षित है, वैसो और उतनी दिखाई नहीं देती।
असत्य को हटाने के लिए पर्चेबाजी करने या विशाल सभाओं में प्रस्ताव पारित करने मात्र से कार्यसिद्धि होना अशक्य है । सत्साहित्य का जितना अधिक प्रकाशन व पठन-पाठन प्रारम्भ होगा, असत् का पलायन होगा। अपनो संस्कृति को रक्षा के लिए आज सत्साहित्य के प्रचुर प्रकाशन की महती आवश्यकता है
येनेते विदलन्ति वादि गिरस्यतुष्यन्ति वागीश्वराः,
भव्या येन विदन्ति निवृति पदं मुञ्चन्ति मोहं बुधाः। यद् बन्धुर्यन्मित्रं यदक्षयसुखस्याधारभूतं मतं,
तल्लोकत्रयशुद्धिदं जिनवचः पुष्याद् विवेकश्रियम् ।। आचार्य १०८ श्री विमलसागर जी महाराज के सन्मार्ग-दिवाकर महोत्सव पर माँ जिनवाणो को सेवा का यह संकल्प मैंने प० पू० गुरुदेव आचार्यश्री व उपाध्यायश्री के चरण-सान्निध्य में लिया। आचार्यश्री व उपाध्यायश्री का मुझे भरपूर आशीर्वाद प्राप्त हुआ। फलतः इस कार्य में काफी हद तक सफलता मिल रही है।
इस महान कार्य में विशेष सहयोगो पं० धर्मचन्द्र जी व ब्र० प्रभाजी पाटनी रहे, इन्हें व प्रत्यक्ष-परोक्ष में कार्यरत सभी कार्यकर्ताओं के लिए मेरा आशीर्वाद है।
आर्यिका स्यावावमतो
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