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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
'पुरुष कहते हैं । यह पुरुष शब्द की व्युत्पत्तिसे किया गया अर्थ मनुष्यगतिवाले पुरुषसे संबंध रखता है । प्रकृतमें शुद्ध जीवका वाचक 'पुरुष' शब्द है । जिस 'पुरुष' का अर्थ व्युत्पत्तिसे बतलाया गया है, वह इस शुद्ध जीव की अशुद्ध एवं वैभाविक अवस्था है । वह अवस्था अनादि कालसे है, उसी वैभाविक पुरुषपर्यायमें आकर अपने पुरुषार्थसे यह आत्मा शुद्ध पुरुष वा शुद्ध चेतन बन सकता है । इसलिये स्वाभाविक पुरुषपर्यायकी प्राप्तिके लिये वैभाविक पुरुष पर्याय ही साधक (कारण) है; क्योंकि बिना वैभाविक पुरुष पर्यायके प्राप्त किये स्वाभाविक पुरुषपर्याय कभी किसी जीवको नहीं प्राप्त हो सकती ।
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यह जीव अशुद्ध अवस्था में शरीर तथा सूक्ष्म पुद्गल वा कार्मारणवर्गणाओंके निमित्तसे कथंचित मूर्त कहलाता है । यह मूर्तता केवल संबंधजनित है । वास्तवमें आत्मा अमूर्त है, पुद्गल ही मूर्त है । रूप-रस-गंध - को मूर्ति कहते हैं । मूर्ति जिसमें हो, वह मूर्त कहलाता है । ऐसा मूर्त सिवा पुद्गल के अन्य कोई द्रव्य नहीं है । रूप रसादिक पुद्गलके गुण हैं, वे जीव में कभी नहीं आ सकते । जितने पदार्थ देखने में आते हैं, सुनने में आते हैं, चखने में आते हैं, छूने में आते हैं तथा सूंघनेमें आते है, वे सब पुद्गल हैं । जीव न सुननेमें आता, न देखा जाता, न चखा जाता, न सूघा जाता, न छूने में आता; वह आकाशके समान अमूर्तिक- इंद्रियोंके अगोचर अरूपी पदार्थ है । कोई पुरुष आंखों द्वारा जीव को देख नहीं सकता, केवल शरीरोंको देखकर उनमें बसनेवाले जीवका अनुमान कर लेता है ।
१.
पुरुगुणभोगे सेदे करोदि लोयम्मि पुरुगुणं कम्मं । पुरु उत्तमे य जम्हा तम्हा सो वणिओ पुरिसो ||
-i गोम्मटसार. जीवकांड
अर्थात् पुरुष ही संसारमें सर्वोत्तम कार्य कर सकता है, वही कर्मको नष्ट कर सर्वोत्तम गुणों का विकाश कर सकता है । एवं पुरुष शब्द की सार्थकता वहीं होती है जहाँ आत्मा पुरुषपर्यायमें रहकर स्वीकीय पौरुषसे ध्येयरूप मोक्ष- पुरुषार्थ की सिद्धिको प्राप्त होकर शुद्धवीतराग सर्वज्ञ-पुरुष-पदमें पहुँच जाता है । जो शुद्धपुरुष- शुद्धआत्मा है, वही 'अस्तिपुरुषश्चिदात्मा' इस श्लोक द्वारा बतलाया गया है ।
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