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________________ [ पुरुषार्थसिद्ध य प य wmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm और इन्द्रियां सभी काम करती हैं, जीवके निकल जाने पर शरीर जड़ का जड़ रह जाता है । ‘जीव कोई वस्तु नहीं है किंतु पुद्गल ( मैटर ) का विकाश है' इस भ्रममें पड़कर आजतक अनेक वैज्ञानिकवादवाले (साइ न्टिफिक) प्रयत्न कर चुके; परन्तु असम्भवको सम्भव नहीं कर सकेमरे हुए मनुष्यको आजतक कोई नहीं जिला सका। यदि जीव पुद्गलका पर्याय होता, तो किसी-न-किसी स्कन्ध में वैसी योग्यता आजतक क्यों नहीं मिल सकी ? कभी तो किसी परमाणु-स्कन्धों वैसी योग्यता मिल कर ज्ञानोत्पत्ति मिल जाती ! परन्तु अनेक प्रकारकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म भौतिक (पौद्गलिक ) उन्नति करने पर भी पुद्गलमें ज्ञानोत्पत्ति किसीने नहीं की; इससे सिद्ध होता है कि जैसे जिसके कारण होते हैं, उनसे वैसे ही कार्य होते हैं । जड़से जितने प्रकारके भी आविष्कार होंगे; वे सब जड़रूप ही होंगे; जड़ से चेतनका कभी आविष्कार नहीं हो सकता । यदि जड़से चेतनका आविष्कार होने लगे तो संसारमें ज्ञान की श्रृंखला कभी नहीं बन सकती, परन्तु समस्त जीवोंमें ज्ञानकी एक श्रृंखला पाई जाती है। मनुष्यका जो वाल्यावस्थाभे ज्ञान होता है, वह युवावस्थामें भी बना रहता है तथा वृद्धावस्थामें भी बना रहता है । इतना ही नहीं, किन्तु जिससमय बालक उत्पन्न होता है, उससमय भी उसे पहली अवस्थाका अर्थात् इस जन्मसे पहले जन्मका ज्ञान रहता है । वहुत से ऐसे दृष्टांत सुने तथा देखे गये हैं कि अनेक बालकोंको जातिस्मरण हुआ है, उन्होंने पहले जन्मकी सव बातें बताई हैं ।* यदि ज्ञान पुद्गलसे ही उत्पन्न होता तो फिर पूर्वापर जोड़रूप ज्ञान नहीं पाया जाता; नाना * जिससमय हम मोरेनाके "श्रीगोपाल दि० जैन विद्यालय में अध्यापन-कार्य करते थे, उससमय वहाँ एक ब्राह्मणका ४ वर्षका बालक आया था । उसके संरक्षक उसे ग्वालियर-नरेशके पास ले जा रहे थे। बालक कहता था कि अमुक सिपाही ने मुझे कुए पर पानी पीते हुए गोली से मारा था, मैं उससे बदला ले कर ही रहूँगा । मोरेनाके जानकार कहते थे कि वह सिपाही अभी तक मौजूद है । उसने एक प्रसिद्ध डाकूको, उसके नहीं पकड़े जाने पर, महाराजकी आज्ञानुसार मौका पाकर उसे गोलो से मार दिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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