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________________ पुरुषार्थसिद्ध यु पाय ] [४३६ सारकलश; पुरुषार्थसिद्ध यु पाय आदि शास्त्रोंका प्रणयन किया है वे महाशास्त्र आज विद्वज्जनता में कितनी आदरपूर्ण दृष्टिसे देखे जाते हैं यह वात किसीसे छिपी नहीं है, फिर ऐसे महान् आचार्य कहाँ तक अपनी लघुता प्रगट करते हैं ? इस लघुतासे पाठकों एवं श्रोताओंके हृदयपर कितना उच्च प्रभाव पड़ता है ? यह बात इनके ग्रथों के स्वाध्याय करनेवाले स्वयं अनुभव करते हैं। जो लोग थोड़ेसे साक्षर बनकर अपनेको उद्भट विद्वान् प्रगट करनेकी चेष्टा करते हैं; जो अपनी नगण्य कृतिको बड़ा रूप देना चाहते हैं, जो ग्रंथोंके समझनेतककी अजानकारी रखते हुए भी आर्षग्रंथों में त्रुटियां देखने तकका दुःस्वप्न देखते हैं एवं जो महर्षियोंके अनुभवपूर्ण आगमानुसार शास्त्रोंके अभिप्रायोंसे प्रतिकूल-स्वतंत्र रचना करनेका विद्वनिंद्य दुःसाहस करते हैं उन सबोंका परमपूज्य आचार्यवर्य श्रीअमृतचंद्रसूरि महाराजके परम सरल शुद्ध भावोंके दिग्दर्शनसे केवल लज्जित ही होकर नहीं रह जाना चाहिये किंतु उनकी अत्यंत महनीय सरलता को परम उच्चादर्श मानकर उनके बताये हुए आदेशको सर्वज्ञ-आज्ञा समझकर उसपर मन वचन कायकी दृढतापूर्वक गमन करना चाहिये । इसप्रकार आचार्यवर्य श्रीअमृतचंद्रसूरि-विरचित 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' द्वितीयनाम जिन प्रवचनरहस्यकोषकी वादीभ केशरी न्यायालङ्कार पं. मक्खनलालशास्त्री कृत भव्यप्रबोधिनी नामक हिन्दीटीका समाप्त हुई । समाप्तश्चायं ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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