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पुरुषार्थ सद्धथु पाय ]
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उससमय अग्निका कार्य जलाना होने पर और घृतका कार्य शीतलता होने पर भी अग्निका संपर्क होनेसे यह कह दिया जाता है कि घृत जलाता है । यद्यपि अग्निका कार्य जलाना है घीका नहीं है तथापि अग्नि के संबंधसे घीको भी जलाने वाला कहा जाता है, उसीप्रकार एक आत्मामें रत्नत्रय भी प्रगट हो चुका है, और शुद्धोपयोगके नहीं प्रगट होने तक जो शुभोपयोगका कार्य है उसे रत्नत्रयका कार्य कह दिया जाता है। इसी व्यवहारके कारण शुभोपयोगसे होनेवाले पुण्यवंधको रत्नत्रयका कार्य कहा जाता है । वास्तवमें रत्नत्रय घीकी शीतलताके समान केवल मोक्षका ही कारण है।
रत्नत्रय मोक्षलाभ कराता है सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः ।
मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषं ॥२२२॥ अन्वयार्थ -[ सम्यकत्वबोधचारित्रलक्षणः ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,सम्यचारित्र लक्षण (इति एषः मोक्षमार्गः ) इसप्रकार त्रितयात्मक यह मोक्षमार्ग ( मुख्योपचाररूपः ) मुख्य और उपचार स्वरूप ( पुरुष ) पुरुष-आत्माको [ परं पदं ] उत्कृष्ट पदको [प्रापयति ] प्राप्त करा देता है।
विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय मोक्ष मार्ग है यह रत्नत्रय दो भेदोंमें बंटा हुआ है एक निश्चयरत्नत्रय, दूसरा व्यवहाररत्नत्रय । निश्चय रत्नत्रय साक्षात् मोक्षका साधक है। वह आत्मा प्रतीति, आस्मबोध और आत्मतत्परतारूप है और व्यवहाररत्नत्रय निश्चय का साधक है वह भी परंपरा मोक्षका कारण है । व्यवहाररत्नत्रय जीवादि तत्वोंमें यथार्थ प्रतीत करनेसे, उनका यथार्थ ज्ञान करनेसे और व्रतसमिति गुप्ति धर्म, आदि सदाचरण व्रताचरण पालन करनेने होता है । व्यवहार रत्नत्रय यद्यपि प्रवृत्तिस्वरूप है फिर भी निवृत्तिका पूर्णसाधक है, निश्चय रत्नत्रय तो निवृत्तिस्वरुप है ही। यह दोनोंप्रकारका ही रत्नत्रय इस
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