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पुरुषार्थसिद्धयुपाय ]
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है प्रत्युतः वधका रोकनेवाला है । क्योंकि धधका कारण मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र हैं' उन्हींसे अनंत संसारको बध होता है । सम्यग्दर्शन सम्यकचारित्रके प्रगट हो जानेपर उन मिथ्या भावोंका अभाव हो जाता है फिर अनन्त संसारका बध आत्मामें नहीं होता। जो कषाय वाकी रह जाते हैं वे ही कर्मबंध करते रहते हैं। ज्यों ज्यों चारित्र गुणको आत्मामें प्रकर्षता बढ़ती जाती है त्यों त्यों वे कषाय भी घटते जाते हैं इसलिए कर्म बंध भी हलका होने लगता है । जिससमय पूर्ण चारित्रगुण प्रगट हो जाता है उससमय कषायभाव सर्वथा नष्ट हो जाते हैं वैसी अवस्था में फिर कर्मबंध नहीं होता । इसप्रकार सम्यग्दर्शनने मिथ्यात्वजनित कर्मबंध को रोक दिया और सम्यक्चारित्रने कषायजनित कर्मबंधको रोक दिया इसलिए रत्नत्रय कर्मबंधका रोकनेवाला है, उसे कर्मवध करनेवाला ठीक नहीं।
__ फिर सम्यक्त्वको देवायुका कारण क्यों कहा गया ? ननु कथमेवं सिद्धयतु देवायुःप्रभृतिसत्प्रकृतिबंधः ।
सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणां॥२१६ ॥ ___ अन्वयार्थ--( ननु ) शंका होती है कि ( रत्नत्रयधारिणां ) रत्नत्रय धारण करनेवाले ( मुनिवराणां ) मुनिवरोंके ( सकलजनसुप्रसिद्धः ) समस्तजनोंमें प्रसिद्ध ( देवायुःप्रभृतिसत्प्रकृतिबंधः) देवायुको आदि लेकर शुभ प्रकृतियोंका बंध ( एवं कथं सिद्धयतु ) इसप्रकार कैसे सिद्ध होगा ?
विशेषार्थ--शास्त्रों में यह बताया गया है कि सम्यग्दर्शनले देवायुका बंध होता है जैसा कि श्री तत्वार्थमहाशास्त्रका सूत्र है कि “सम्यक्त्वं च” इससे सिद्ध है कि सम्यग्दर्शन देवायुके बधका कारण है । तथा रत्नत्रयधारक मुनियोंके शुभप्रकृतियोंका बध होता है ऐसा भी शास्त्रोंमें कहा गया है यह बात सभी पुरुष जानते हैं; जब कि ऊपरके कथनानुसार रत्नत्रय बधना कारण नहीं है तो फिर देवायु आदिका बध उससे होता
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