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________________ पुरुषार्थं सिद्धपाव ] की में हलन चलन होता हैउसी समय संसार में सर्वत्र भरे हुए और आत्मा के साथ संबंधित कर्मों के प्रत्येक परमाणु के साथ विना बंधके लगे हुए अनंतानंत कर्माणवर्गणाओं रूप परमाणुसमूह (विस्त्रसोपचय) आत्मा के साथ बंधकको प्राप्त हो जाते हैं, तभी उन कार्माणवर्गणाओं कर्म पर्याय होजाती है, विना बंध के कर्मपर्याय नहीं होती । श्लोक में योग से केवल देशबंध कहा गया है, परन्तु वह उपलक्षण है । प्रदेश के कहने से प्रकृतिबंध भी गृहीत होता है जैसा कि श्री गोम्मटसार, द्रव्यसंग्रह आदि शास्त्रों में कहा गया है - "जोगा पयडपदेसा" अर्थात् योगों से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता है । स्थितिबंध वह कहा जाता है कि जो अपनी अपनी समय-मर्यादा को लेकर कर्म आत्मा में ठहरते हैं, जिन कर्मों की स्थिति पूर्ण हो जाती है वे आत्मा से संबंध छोड़ देते हैं उसी को कर्मका नाश कहते हैं । कारण कि कर्मपर्याय तभीतक रहती है जबतक कि उन परमाणुओं का आत्मासे संबंध है, संबंध हटने पर कर्म-संज्ञा अथवा कर्मपर्याय नष्ट होकर कार्माण संज्ञा हो जाती है, अन्यथा पर्याय को छोड़कर मूलनाश किसीका नहीं होता है । कमों में दर्शनमोहनीयकर्म की स्थिति सत्तर कोटाकोटि सागरप्रमाण है । यह उत्कृष्ट स्थिति है इससे बढ़कर किसी कर्म की स्थिति नहीं पड़ती। चारित्रमोहनीय की चालीस कोटाकोटि सागरप्रमाण है । गोत्रकर्म की बीस कोटाकोटि सागरप्रमाण है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय और अंतराय इन चार कमकीप्रत्येक कर्मकी स्थिति तीस कोटाकोटि सागरप्रमाण है । नामकर्मकी स्थिति बीस कोटाकोटि सागरप्रमाण है । आयुकर्मकी स्थिति केवल तेतीस सागरप्रमाण है । यह उत्कृष्ट स्थिति की मर्यादा है । जघन्य - कमसे कमवेदनीयकी बारह मुहूर्त, नाम और गोत्रकी - प्रत्येक की आठ मुहूर्त है, बाकी के समस्त कर्मोंकी जघन्य स्थिति एक अंतर्मुहूर्त की है । Jain Education International [ ४२३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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