SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८६] पुरुषार्थसिद्धय पाय आनेपर खड़े हो जाना, हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार करना, आसन देना, उनकी पूजा करना, पाद प्रक्षालन करना, इत्यादिरूपसे अनेक प्रकार वंदना के भेद हे । पांचों परमेष्ठियोंमेंसे किन्हीं एक परमेष्ठी भगवानके गुणोंकी पूजा करना, उनका नामोच्चारण कर पूजा करना, उनके गर्भादि कल्याणों की पूजा करना, उनके उत्पत्ति आदि स्थानोंकी पूजा करना, ये सब भी चंदनाके प्रकार हैं। इस वंदनाके भी छह भेद हैं-नामवंदना, स्थापनावंदना, द्रव्यवंदना, क्षेत्र इना, कालवंदना, भाववंदना । श्रीअर्हतं आदि पांच परमेष्ठियों का नामोच्चारण करना नामवंदना है। पूजा करना, स्तुति करना, स्थापनावंदना है । उनके शरीरकी स्तुति करना द्रव्यवंदना है । कल्याणभूमिकी स्तुति करना क्षेत्रवंदना है। कल्याणकालका स्तवन करना कालवंदना है । उनके गुणोंका स्तवन करना भाववंदना है । मुनिमहाराज मान छोड़कर संसारसे भयभीत होकर आलस्यरहित प्रतिदिन, आचार्य, उपाध्याय, गणरक्षक, मर्यादा, रक्षक रत्नत्रयसे वृद्ध साधुओंकी बंदना करते हैं । जिस समय आचार्य दीक्षागुरु एवं शिक्षागुरु किसी देशांतर में चले जाय उस समय मुनिगण , ‘मर्यादा रसक मुनियोंकी वंदना करते हैं। यदि वे भी देशांतरमें गये हों तो दूसरे जो यति हैं । जो कि दीक्षासे बड़े हैं उन्हें नमस्कारादि करते हैं । यह सब वंदना विधि जैसी कुछ शास्त्रों में बतलायी गई है उसी के अनुसार करते हैं । इतना विशेष है कि संयमी पुरुषों द्वारा विशेष संयमी वंदना के पात्र हैं , जो असंयमी हैं वे संयमियों के वंदना के पात्र कदापि नहीं हैं। जो सयमी मुनि हैं वे श्रावक - संयमी को भी वंदना नहीं कर सकते , क्योंकि श्रावक एकदेश चारित्रधारी होता है मुनि सर्व. देश चारित्रधारी होते हैं इसलिये मुनि श्रावक द्वारा वंदनीय हैं , श्रावक उनके द्वारा कदापि वंदनीय नहीं हैं। तथा जो व्रती श्रावक है वह भी असंयमी-अवती माता पिताको , असंयमी गुरु को , असंयमी राजाको, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy