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[ पुरुषार्थसिद्ध पाय
वनस्पति । प्रत्येक वनस्पतिके भी दो भेद हैं- एक सप्रतिष्ठित प्रत्येक, दूसरी अप्रनिष्ठित प्रत्येक । साधारण वनस्पति उसे कहते हैं जिसके समानभंग हो जाय अर्थात् जबतक बनस्पति बिलकुल कोमल रहती है उसे तोड़ने पर ही जहांसे तोड़ा जाय वहीं पर समान दो टुकड़े हो जांय तो समझना चाहिये कि वह साधारण है । यदि वह प्रत्येक होगी तो समान टुकड़े नहीं होंगे किंतु जहां तोड़ी जायगी वहींपर से आगे तक फट जायगी अर्थात् उतनी कोमलता उसमें नहीं होगी। दूसरे जिन पत्तों में जबतक रेखायें - नशाजाल नहीं निकला है तबतक साधारण हैं जैसे पानके पत्तेमें जबतक रेखायें प्रगट नहीं होती हैं तबतक वह साधारण है और जब रेखायें प्रगट हो जाती हैं तब वह प्रत्येक हो जाता है । जितना कन्दमूल है वह भी सब साधारण है, जिस वृक्षकी त्वचामें छालमें बहुत मोटापन एवं पूरा हरापन जबतक है तबतक वह त्वचा - छाल साधारण है, पीछे कुछ पतली होनेपर प्रत्येक हो जाती है । यही बात श्री गोम्मटसारमें कही गई है - मूले कंदे छल्ली, पवालसाल कुसुमफलवीजे ।
समभंगे सदिगंता विसमे सदि होंति पत्तया ॥
अर्थात् मूलकंद, कंदमूल, छाल, पत्ता, छोटी छोटी टहनी, पुष्प, फल, बीज इन सबमें समान भंग होनेपर - अनंतनिगोदराशि - साधारण वनस्पति समझी जाती है और विषमता होनेपर - तोड़ने पर कुछ तिड़कने पर प्रत्येकवनस्पति समझी जाती है ।
साधारण वनस्पतिका लक्षण यही है कि जिस एक शरीरके समान रूपसे अनंत जीव स्वामी हों, एकके मरनेपर सभी अनंते मरजांय और एक श्वासोच्छवास लेनेपर अनंतोंका श्वासोच्छवास हो जाय । जैसा कि श्रीगोम्मटसारमें सिद्धांतचक्रवर्ती श्रीनेमिचंद्राचार्यने बतलाया है
जत्थेक मरइ जीवो तत्थ दु मरणं हवे अांताणं ।
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चकमइ जत्थ एक्कं चंकमणं तत्थ संताणं ॥
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