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________________ पुरुषार्थसिद्ध पाय लेशमात्र भी नहीं होती. प्रोषधोपवास धारण करनेवाला पुरुष भोग उपभोग आदि सब प्रकारका आरंभ सेवन छोड़ देता है। केवल धर्मारंभ ही करता है, वैसी अवस्था में भोग उपभोगसेवनमूलक स्थावर हिंसा भी उसके नहीं होती, त्रसहिंसाका तो वह अणुव्रती होनेसे स्वयं त्यागी होता ही है । प्रोपधोपवास करनेवालेके और पाप भी नहीं हैं वाग्गुप्तेनास्त्यनृतं न समस्तादानविरहतः स्तेयं । ना मैथुनमुचः संगो नांगेप्यमूर्च्छस्य ॥ १५६ ॥ अन्वयार्थ – [ वाग्गुप्तेः ] वचनगुप्ति पालने के कारण [ अनृतं नास्ति ] झूठ वचन नहीं है [ समस्तादानविरहत: ] समस्त द्रव्य लेनेका त्याग करनेसे [ न स्तेयं ] चोरी नहीं है [ मैथुनमुचः ] मैथुन छोड़ देनेके कारण [ न अब्रह्म ] ब्रह्मचर्य भंग नहीं है [ अंगे अपि अमूछस् ] शरीर में भी ममत्वभाव छोड़ देनेसे [ संगो न ] परिग्रह नहीं है । विशेषार्थ - प्रोषधोपवास पालनेवाले पुरुषके शास्त्रस्वाध्याय आदिमं वचनों की प्रवृत्ति होनेसे मिथ्या वचन नहीं निकलते । सब प्रकारके आदान ( परपदार्थग्रहण ) का त्याग होनेसे चोरी तो संभव ही नहीं है । वह स्वस्त्रीसंगका भी त्याग कर देता है इसलिए पूर्ण ब्रह्मचर्य पल जाता है और अपने शरीर में भी ममता नहीं रखता इसलिए उसके पर पदार्थों में ममत्वपरिणाम न होने से परिग्रह भी नहीं रहता इसप्रकार यथाविधि प्रोषधोपवास पालनेवालेके पांच पापोंमेंसे एक भी पाप नहीं लगता । प्रोषधोपवासी उपचरित महाव्रती है। इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महाव्रतित्वमुपचारात् । उदयति चारित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानं ॥ १६० ॥ [ ३०७ अन्वयार्थ - ( इत्थं ) इसप्रकार ( अशेपितहिंसः ) समस्त हिंसा को छोड़नेवाला ( स ) वह प्रोषधोपवास करनेवाला ( उपचारात् महानतित्वं प्रयाति ) उपचार से महाव्रतीपनेको प्राप्त होता हैं । (तु) परंतु ( चारित्रमोहे उदयति ) चारित्रमोहनीय कर्म के उदय हान ( संयमस्थानं न लभते ) संगमस्थानको नहीं पाता है 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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