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________________ २६४ ] [पुरुषार्थसिद्धथुपाय कल्याण हो, यदि कदाचित् घुणाक्षरन्यायसे इन कथाओंसे किसीको कोई शिक्षा भी मिल जाय तो भी ये दुष्टकथायें बहुलतासे संसारमें अज्ञानको ही बढ़ाने वाली हैं-जैसे नाटक देखनेवालोंमें किसी किसी पुरुषको शिक्षा भी मिल जाती है अर्थात् उसके फलाफलपर वह अपनी प्रवृत्तिको तदनुरूप बना डालता है परंतु बहुलतासे उन नाटकोंसे कुशिक्षाकामादि विकारी भावोंकी ही उत्पत्ति होती है। इसलिये नाटकादिको देखना बहुभाग में अज्ञानका ही वर्धक है । इसीप्रकार दुष्टकथाओंका सुनना सुनाना भी अज्ञानका ही वर्धक है इसलिये उनका छोड़ना ही हितकारी है। उनके छोड़नेको ही दुःश्रुति-अनर्थदंड त्यागवत कहा जाता है। छत-अनर्थदंड त्यागवत सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सझ मायायाः । दूरात् परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं घृतं ॥१४६।। अन्वयार्थ - [ सर्वानर्थप्रथमं ] संपूर्ण अनर्थों में पहला [ शौचस्य मथनं ] संतोषवृत्तिका नष्ट करनेवाला [ मायायाः सम ] मायाका घर [ चौर्यासत्यास्पदं ] चोरी और झूठका स्थान ऐमा [ यतं ] जूआ खेलना [ दूरात् परिहरणीयं ] दूरसे ही छोड़ देना चाहिये। - विशेषार्थ-जुआ खेलना भी अनर्थदंड है, कारण इसके खेलनेसे भी विना प्रयोजन पापबंध होता हैं जिसप्रकार गाड़ीमें जुआ ( जो वलोंके कंधेपर रक्खा जाता है ) सबसे आगे रहता है उसीप्रकार यह जुआ खेल भी समस्त अनर्थों में पहला अनर्थ समझा जाता है । जुआ खेलनेवाला किसी अनर्थसे वच नहीं सकता क्योंकि जो अन्यायका पैसा आता है उससे अन्यायके कार्य ही किये जाते हैं । पहले तो जुआरियोंकी संगति महा नीच होती है, वह मनुष्यसे चाहे जैसा अनर्थ करानेपर उतारू रहती है, जुआ खेलने में यदि हार होती है तो जुआरी अपने घरकी सब चीजोंको स्त्रीके गहने आदि भी यहांतक कि घरको भी बेच देता है, फिर भी पूर्ति नहीं होती है तो चोरी करता है, पकड़ा जानेपर अनेक झूठसे काम लेता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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