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पुरुषार्थ सिद्ध पाय ]
विद्यासे आजीविका वहां कही जाती है जहां कि उसका खर्च करना माप तौल में ग्रहण किया जाता है, जैसे कोई हारमोनियम सिखलानेका व्यवसाय करता है, उसने नियत कर दिया है कि इतना ज्ञान करानेपर इतने रुपये लूंगा और इतना ज्ञान करानेपर इतने रुपये लूंगा, मामान्यरूपसे स्वरोंका ज्ञान करानेपर १०) रुपये, एक चौतालाका स्वर सिखानेपर २० ) और हरएक स्वर निकालना सीख जानेपर १००) रुपये लूंगा उसमें भी५) पेशगी लूंगा । इसप्रकार की जहां ज्ञान करानेकी माप तौल ठहरा दी जाती है, जिसकी इच्छा आती है वह उतना सीख जाता है और उतने ही ज्ञानके नियत रुपये देकर चला जाता है, साथ ही सिखानेवाला ही सीखनेवालेको उच्चासन देता है गुरु शिष्य भाव नहीं रहता प्रत्युत सिखानेवाला अपने गुणकी प्रशंसा करता है कि मैं अच्छी तरह सिखा दूंगा इसलिये मेरे ही पास सीखो, बस ऐसे ही उदाहरण विद्याव्यवसायके हैं, परंतु पाठशालाओंमें ज्ञान बढ़ानेका कोई नियमित मूल्य नहीं है और न पढ़ानेवालेकी आत्मामें द्रव्य ग्रहण करनेपर भी कुछ अवनति है, प्रत्युत वह छात्रों को दंड भी देता है फिर भी उसकी गुरुताका महत्त्व उन (छात्रों) की दृष्टि में भरा रहता है । हां ! आजकल जो एक दो घंटेकी समयनियति और पुस्तकोंकी नियतिसे प्रत्येक बुलानेवाले के घरपर जाकर जो अंग्रेजी आदि लौकिक विद्यायें ट्यूशन के नामसे पढ़ा दी जाती हैं, यह मार्ग उत्तम मार्ग नहीं कहा जा सकता, कारण पाठशालायें तो गुरु आश्रम के स्थानापन्न हैं इसलिये वहां पढ़ने की इच्छा रखनेवाले स्वयं आते हैं परंतु व्यशनोंमें स्वयं अध्यापक छात्रों के घरोंपर जाता है, ऐसी अवस्था में पाठकों का न तो उन बालकों के हृदयमें महत्त्व ही रहता है और न गुरुओंकी आत्मामें ही निजका समुन्नत महत्त्व रह सकता है । यहां पर अन्य आजीविकाका समय और व्यवसाय रहते हुए भी घंटे दो घंटे पढ़ाकर उस मार्ग से भी आजीविका करने का लक्ष्य है परंतु पाठशालाओं एवं विद्यालयों में
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