SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय उनके जीवरक्षाके भाव होते तो क्यों नहीं वे रात्रिभोजन छोड़ते ? हर समय तो कोई खाता नहीं रहता और न हर समय कोई खा ही सकता है ऐसी अवस्थामें जीवरक्षाका भाव रखनेवालोंको भोजन करनेके लिये दिन तो मिला हुआ है। फिर भी जो दिनका भोजन छोड़कर रात्रिमें ही भोजन करनेमें सुख समझते हैं वे जीवरक्षाके भावसे सर्वथा दूर हैं और तीव्ररागी होनेसे पूर्ण हिंसक हैं । रात्रिभोजन में अनिवार्य जीवहिंसा अर्का लोकेन विना भुञ्जानः परिहरेत्क्थं हिंसां । अपि बोधिते प्रदीपे भोज्यजुषां सूक्ष्मजन्तूनां ॥१३३॥ अन्वयार्थ – [ आलोकेन बिना ] सूर्य के प्रकाशके बिना रात्रि के अंधकार में [ 'जानः ] भोजन करनेवाला [ प्रदीपे बोधिते अपि ] दीपक के जला लेनेपर भी [ भोज्यजुषां सूक्ष्मजंतूनां ] भोजन में प्रीतिवश गिरनेवाले सूक्ष्म जन्तुओंकी [ हिंसां ] हिंसाको [ कथं ] कैसे [ परिहरेत् ] सकता है ? अर्थात् नहीं बचा सकता । विशेषार्थ - रात्रि में भोजन करनेवाले लोग जीवहिंसासे किसी प्रकार वच नहीं सकते, कारण कि रात्रि में सूर्यका प्रकाश तो रहता ही नहीं है । बिना सूर्यके प्रकाशके नेत्रइंद्रिय पदार्थों को ठीक ठीक देखने में असमर्थ है । इसलिये अंधकारमें बैठकर भोजन करनेवाले पुरुष भोजन की थाली में आए हुए प्राणियों को कैसे देख सकते हैं ? सूक्ष्म जन्तु तो दूर रहे, बड़े बड़े जीव भी अंधेरेमें नहीं दीख सकते और रात्रि में बहुतसे छोटे छोटे मच्छर सरीखे जीव जो दिनमें सूर्य के प्रकाश में चलते फिरते नहीं किंतु कूड़े कचरेवाले स्थानों में कोनोंमें छिपे बैठे रहते हैं वे रात्रिमें निकलते है और भोजनकी सुगन्धि पाकर वहां उड़ उड़ कर पहुंचते हैं तथा भोजनको स्पर्श करते ही द्रवीभूत वस्तुओंपर-दाल, घी, दूध छाछ, रबड़ी साग आदिपर गिरकर मरजाते हैं ऐसे सूक्ष्म जन्तुओंको अंधेरेमें भोजन करनेवाला पुरुष क्या कभी देख सकता है ? कभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy