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पुरुषार्थ सिद्धय पाय )
८२६७ mmmmmmmmmmmmmmmmm ~mmmmmmmmmmmmmmmmmom कर्मके यद्यपि तीन भेद हो जाते हैं । एक सम्यक्त्वप्रकृति, दूसरी सम्यङमिथ्यात्वप्रकृति, तीसरी मिथ्यात्वप्रकृति । इन तीनोंमें मिथ्यात्व ही मूलकर्म है उसीके दोनों उत्तर भेद हैं इसलिये वही प्रधान सम्यग्दर्शनगुणका घात करनेवाला कार्य है । जिससमय आत्मामें मिथ्यात्वकर्मका उदय होता है उसी समय आत्माका सम्यग्दर्शनगुण सर्वथा नष्ट हो जाता है उससमय आत्मा बिना किसीके उपदेश आदि निमित्तके स्वयंमेव विपरीत बुद्धिवाला बनकर पदार्थों का उलटा अथवा मिथ्याश्रद्धान करने लग जाता है । यह उसी मिथ्यात्वकर्मके उदयका माहात्म्य है। इस कर्मका उदय प्रथम गुणस्थान अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही होता है । जीवका सबसे बड़ा अनिष्ट करनेवाला एवं उसकी सबसे प्रियतम निधि स्वानुभूतिको चुरानेवाला मिथ्यात्व है। उसीप्रकार अनंतानुबंधि क्रोध, अनतानुबंधि मान, अनंतानुबंधि माया और अनंतानुबंधि लोभ, ये प्रथम चार कषाय भी सम्यग्दर्शनगुणके चुरानेवाले-चोर हैं, अर्थात् जिससयय जीवका सम्यग्दर्शन गुण चतुर्थ गुणस्थान में प्रगट रहता है, वहांपर यदि अनंतानबंधिकषायमेंसे किसी एकका उदय हो जाता है तो आत्माका सम्यग्दर्शनगुण तुरन्त नष्ट हो जाता है और वह आत्मा वहांसे गिरकर द्वितीय गुणस्थानसासादनमें पहुंच जाता है । अनन्तानबन्धि कषाय यद्यपि चारित्रमोहनीय कर्मके भेदों में गिनाया गया है परन्तु उसमें चारित्रके साथ सम्यग्दर्शनके घात करनेकी भी सामर्थ्य है इसलिये उसे सम्यक्त्वघातक प्रकृतियोंमें भी शामिल किया गया है इसीलिये सम्यक्त्वघातक सात प्रकृतियां समझी गईं हैं । अनंतानुबंधिकषायका उदय दूसरे गुणस्थान तक ही रहता है आगे नहीं। द्वितीयगुणस्थानमें जीवके मिथ्यात्वोन्मुख (मिथ्यात्वके सन्मुख) वैभाविक परिणाम रहते हैं । इस विषयका विशेष विवेचन सम्यग्दर्शनका लक्षण बतलाते समय विस्तृत किया जा चुका है इसलिये यहांपर विशेष नहीं लिखा।
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