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पुरुषार्थसिद्धय पाय
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वाह्यपरिग्रहके भेद अथ निश्चित्तसचितौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदी द्वौ। नैषः कदापि संगः सर्वोप्यतिवर्तते हिंसां ॥१७॥
अन्वयार्थ-( अथ ) इसके अनन्तर वाह्यपरिग्रहके भेद बतलाते हैं (बाह्यस्य परिग्रहस्य ) वाय परिग्रह के ( निश्चित सचितौ ) अवेतन और सचेतन (द्वौ भेदौ) दो भेद हैं ( एषः) यह दोनों प्रकारका ( सर्वोपि संगः ) सभी परिग्रह (कदापि ) कभी भी ( हिंसां न अतिवर्तते ) हिंसाका अतिवर्तन नहीं करता है ।। __ विशेषार्थ- बाह्य परिग्रहके दो भेद हैं, एक अचेतन, दूसरा सचेतन । रुपया पैसा वर्तन वस्त्र मकान जमीन आदि जो कुछ जड़ संपत्ति है वह अचेतन परिग्रह है, गोधन हाथी घोड़ा बैल दासी दास स्त्री सेना आदि सभी सचेतन परिग्रह हैं । जो जीवधारी परिगृहको अर्थात् जिन जीवोंसे अपना संबंध है उन्हें अपना मानता है वह उसका सचेतन परिग्रह है और जिन जड़ वस्तुओंको अपना मानता है वे सब उसका अचेतन परिग्रह हैं । इन दोनोंप्रकारके परिग्रहोंमें हिंसा नियमसे होती है। कारण दोनों प्रकारके परिगृह बिना आरंभके नहीं रह सकते, जो कुछ उनका कार्य अथवा आरंभ है वह हिंसाके नहीं हो सकता। इसलिये हिंसा परिगृहसे अनिवार्य है। तथा जहां आरंभ नहीं है वहां ममत्व परिणामरूप भावहिंसा ही, इसलिये परिगृह और हिंसाकी भी व्याप्ति है। जहां परिग्रह है वहां हिंसा अवश्य है।
परिग्रहकी सत्ता असत्ता में हिंसा अहिंसा उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्याः सूचयन्त्यहिंसेति। द्विविधपरिग्रहवहनं हिंसेति जिनप्रवचनज्ञाः ॥११८॥ विशेषार्थ-[ जिनप्रवचनज्ञाः ] जिनेन्द्रभगवानके उपदिष्ट आगमको जाननेवाले [ आचार्याः ] श्री परम गुरु आचार्यमहाराज [ उभयपरिग्रहवर्जनं ] सचित्त अचिच इन दोनों प्रकार के परिग्रहोंका छोड़ना [ अहिंसा इति सूचयन्ति ] अहिंसा है ऐसा सूचित करते हैं और
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