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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [२५६ - ~ - ~ कारण वह न देखने में आती है और न ली दी जा सकती है । दूसरे उसका ग्रहण बिना इच्छाके सुतरां योगनिमित्तसे होता है, तीसरे वीत. रागमुनियोंके मूर्छा भी नहीं है. ग्यारहवें, बारहवें. तेरहवें गुणस्थानोंमें जहां कर्मग्रहण है वहां कषायभावकी सत्ता भी नहीं है वह दशवें गुणस्थानमें ही नष्ट हो चुका और सातवें आठवें नवमें दशमें गुणस्थानोंमें जहां कषायभाव है वह नितांत मंद एवं अप्रत्तमरूप है इसलिये वहां भी मूर्छाका अभाव ही कहना चाहिये । छठे गुणस्थानमें प्रमत्तपरिणाम है परन्तु वहां कमों में 'ममेदं' यह मेरा है ऐसी बुद्धि उत्पन्न नहीं होती, इसलिये कर्मगृहणमें वीतरागमुनियोंके मूर्छा नहीं है और इसीलिये कर्मग्रहण में परिगृहकी अतिव्याप्ति भी नहीं है । परिग्रहके भेद अतिसंक्षेपाद् द्विविधः स भवेदाभ्यंतरश्च । प्रथमश्चतुर्दशविधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु ॥११॥ अन्वयार्थ- [ सः ] वह परिग्रह [ अतिसंक्षेपात् ] अतितक्षेपसे [ द्विविधः ] दो प्रकारका है [ आभ्यंतरश्च बाह्यश्च ] आभ्यतरपरिह और वाद्यपरिग्रह । [ प्रथमः पहला पायंतरपरिग्रह [चतुर्दविधः] चौदह प्रकारका है [द्वितीस्तु ] दूसरा वाह्य परिग्रह [विविधः ] भवति ] दो प्रकारका है। _ विशेषार्थ- यद्यपि परिग्रहमें असंख्यात भेद हैं, संख्यातकोटिमें लेनेसे भी अनेक भेद हैं, परन्तु उन सब भेदोंको गणनामें नहीं लिया जा सकता, इसलिये संभाल करनेके लिये सब भेदोंको यहांपर दो कोटिमें बांटा गया है। एक अंतरंरग परिग्रह और एक बाह्य परिग्रह । पहलेके १४ भेद हैं । दूसरेके दो भेद हैं, उन भेदोंको ग्रन्थकार स्वयं कहते हैं। अंतरंग परिग्रहके १४ भेद मित्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड् दोषाः । चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यंतराः ग्रंथाः ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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