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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [२३३ इसप्रकार ( वासनाकृपाणी) विचाररूपी तलवारको ( आदाय ) लेकर (दुखिनः अपि ) दुःखी जीव भी (न हंतव्याः) नहीं मारने चाहिये। _ विशेषार्थ-कुछ लोगोंकी ऐसी भी खोटी समझ है कि जिन जीवोंको अधिक दुःख हो रहा है उन्हें अभी मार देना चाहिये जिससे कि वे तुरंत ही दुखोंसे छूट जाय । जितने दिन संसारमें ये जीते रहेंगे उतने दिन ही दुश्ख बने रहेंगे, अभी मार देनेसे तुरंत दुःखों से छूट जायगे । इसप्रकार के विपरीत विचार रखनेवाले वस्तस्वरूप एवं कर्मसिद्धांतसे सर्वथा अपरिचित हैं । उन्हें इस बातका तनिक भी पता नहीं है कि दुःख उन्हें क्यों हो रहा है और वह कब छूट सकता है ? वास्तवमें वे विचार करेंगे तो उन्हें यह बात स्वीकार करनी पड़ेगी कि दुख जीवोंको उनके ही दुष्कर्मका फल है । जिन जीवोंने जैसे जैसे खोटे कर्म किये हैं उन्हीं के अनुसार उनके अशुभ कर्मों का बंध हुआ है, वे ही कर्म उदयमें आकर उन्हें दुःख पहुंचाते हैं। जबतक वे कर्म उदयमें आते रहेंगे तबतक जीवको दुःख पहुंचाते रहेंगे, चाहे जीव वर्तमान पर्यायमें हो, चाहे मरकर दूसरी पर्यायमें चला जाय, कहीं भी क्यों न हो, कर्मो का फल उसे भोगना ही पड़ेगा। ऐसी अवस्थामें उन्हें दुःखसे छुड़ानेके लिये उनको मार डालनेकी बात व्यर्थ है। प्रत्युत उसे मारनेसे उसके और भी परिणाम पीडे जायगे इसलिये और भी वह पापबंध करेगा। इसके सिवा मारनेवाला महान् पापका बंध करके स्वयं दुःखभाजन बनेगा । इसलिये उपयुक खोटी समझको छोड़ देना चाहिये । कों के ऊपर किसीका शासन नहीं चल सकता । बड़े बड़े चक्रवर्ती, इंद्र तीर्थंकर सरीखे महाशक्रिधारी एवं महापुण्याधिकारी पुरुषोंको भी कर्मों ने फलकाल तक नहीं छोड़ा है फिर किसीको दुःखसे छुड़ानेके विचारसे स्वयं दुःख पहुंचानेवाला बन जाय यह महामूर्खता किसीको नहीं करना चाहिये । सुखी भी नहीं मारने चाहिये कृच्छण सुखावाप्तिर्भवंति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति तर्कमंडलायः सुखिनां घाताय नादेयः ॥ ८६ ॥ ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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