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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm. दूसरे पर फेंकनेकी चेष्टा करनेवाले का हाथ पहले जल जाता है पीछे दूसरा जले या न जले यह दूसरी बात है, उसीप्रकार कषायीजीव पहले अपने आत्माका घात कर ही डालता है पीछे दूसरेका घात हो था न हो यह दूसरी बात है।
प्रमादयोगमें नियमसे हिंसा होती है हिंसायामविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा । तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यं ॥ ४८ ॥
अन्वयार्थ-( हिंसायां ) हिंसामें ( अविरमणं ) विरक्त न होना ( अपि ) तथा ( हिंसापरिणमनं ) हिंसामें परिणमन करना ( हिंसा भवति ) हिंसा कहलाती है ( तस्मात् ) इसलिए ( प्रमत्तयोगे । प्रमादयोगमें (नित्यं ) नियमसे ( प्राणव्यपरोपणं ) प्राणोंका घात होता है। ____ विशेषार्थ-हिंसामें जहां प्रवृत्ति है अर्थात् मन वचन कायकी उपयोग सहित जहां हिंसा करनेकी प्रवृत्ति है वहां तो हिंसा होती ही है परन्तु जहांपर हिंसा करनेकी प्रवृति नहीं हैं किन्तु जहां हिंसासे विरकि-त्याग भी नहीं है वहां भी हिंसा होती है । हिंसामें प्रवृत्ति न होनेसे केवल त्याग न करनेसे हिंसा कैसे होती है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि हिंसाका लक्षण प्रमादयोग है, जहां प्रमादरूप परिणाम है वहीं हिंसा है, वाह्य प्रवृति हो या न हो । इस लक्षणके अनुसार जो जीव हिंसाका त्यागी नहीं है उसके परिणामोंमें न तो निराकुलता है, न शांतिरूप परिणाम हैं किन्तु कषायविशिष्ट संस्कार हैं और वे संस्कार ही हिंसामय परिणाम हैं । जिसप्रकार विलाव हिंसामें प्रवृत्त होने पर भी हिंस्रक कहलाता है और सोया हुआ भी हिंस्रक कहलाता है, सोने में भी उसकी क्रूरता चली नहीं गई है उसके क्रूरपरिणाम बराबर उपस्थित हैं । उसीप्रकार हिंसाका त्याग नहीं करनेवाले जीवके परिणाम संस्कारित रूपसे हिंसामय रहते हैं । दूसरी बात यह है कि हिंसा रागरूप परिणामका ही नाम है, जिस जीवने हिंसाका त्याग नहीं किया है उसके परिणामोंमें हिंसा रहती है, क्योंकि यदि राग प्रवृत्तिका
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