________________
१८८] -rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrm
[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
। दूसरी-विरोधिनी हिंसा उसे कहते हैं कि जहांपर दूसरे जीवको मारनेके या उसे दुःख पहुंचानेके तो भाव नहीं हैं परन्तु दूसरा जीव अपनेको पहले मारना चाहे या दुःख देना चाहे तो इस अवसरपर अपनी रक्षाकेलिये विरोध करनेमें जीवबध हो जाता है, अपनी रक्षा करनेमें जहांपर उस आक्रमण. कारी जीवका विरोध करने में जो वध होता है वहांपर अपनी रक्षा करनेवालेका अभिप्राय जीवको मारनेका नहीं है किन्तु अपनी रक्षा करनेका है, परन्तु आत्मरक्षा करते करते यदि दूसरे जीवका वध होता है तो वह हिंसा विरोधसे होनेवाली विरोधिनी कही जाती है । यद्यपि इस हिंसामें भी जीवका बध होता है और संकल्पसे होनेवाली हिंसामें भी जीवका बध होता है, परन्तु दोनोंमें बहुत बड़ा अंतर भावोंका है; संकल्पी हिंसा में मारनेवालेके भावोंमें क्रूरता भरी हुई है, विरोधी हिंसावालेके परिणाममें करता नहीं है किन्तु अपनी रक्षाका प्रयत्नमात्र है। संकल्पी हिंसामें तो जीवके बध करनेके परिणाम हैं, विरोधीमें जीवबध करनेके परिणाम तो सर्वथा नहीं हैं परन्तु अपनी रक्षाके प्रयत्नमें प्रतिकार करतेहुए जीववध हो जाता है अथवा किया जाता है । यदि एक न्यायनिष्ट राजाके ऊपर कोई परराष्ट्र चढ़ आवे तो अपनी एवं प्रजाकी रक्षाके लिये उस राजाको ऊपर आये हुए परराष्ट्रका सामना करना ही पड़ेगा, वैसी अवस्थामें उसके द्वारा अनेक सैनिकोंकी हिंसा भी होगी। राज्यभार ग्रहण करके प्रजाजनपर शासन करनेवाले पदाधिकारीके लिये विरोधी हिंसाका समारंभ अनिवार्य है। इसलिये पद. स्थानुसार यथाशक्ति हिंसाका परित्याग करना प्रत्येक पुरुषका कर्तव्य है ।
तीसरी-आरंभी हिंसा वह कहलाती है जो कि गृहस्थाश्रममें होनेवाले आरंभोंसे होती है । गृहस्थाश्रममें रहनेवाले मनुष्योंको गृहस्थाश्रम संबंधी आरंभ करने ही पड़ते हैं, बिना आरंभ किये गृहस्थाश्रम चल ही नहीं सकता, जलका बरतना, चौका, चूलि, ऊखरी, झाड़ना, कपड़े धोना आदि सब कार्यों में आरंभ होता है; जहां आरंभ है वहां हिंसाका होना अनिवार्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org