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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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प्रधान कर्तव्य है कि शब्दाचार अर्थाचाररूप सम्यग्ज्ञान पालनका पूर्ण ध्यान रक्खें ।
सम्यग्ज्ञानका पूर्ण आदर करना, ग्रंथोंका पूर्ण आदर और सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति करानेवाले गुरुओंका पूर्ण आदर करना, यह बहुमानाचार कहलाता है । यह बात निश्चित है कि जबतक जिस वस्तुको प्राप्ति करना चाहते हैं उसके प्रति आदरभाव एवं आकांक्षा विशेष नहीं होगी, तबतक उसकी प्राप्ति होती नहीं। फिर जिस वस्तुकी प्राप्ति केवल भावोंकी विशुद्धता मात्रसे संबंध रखती है उस वस्तुके प्रति यदि भावोंमें अनादरपना अथवा मलिनता है तो फिर उसकी प्राप्ति अशक्य ही समझना चाहिये । सम्यग्ज्ञानको प्राप्तिके लिये यह नितांत आवश्यक बात है कि सम्यग्ज्ञानकी आराधना की जाय, सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिमें कारणभूत ग्रंथों और गुरुओंकी उपासना की जाय । जबकि हमारी भावना शुद्ध
और बलवती होगी तो अवश्य ही विशेषज्ञानकी प्राप्ति होगी; ऐसा समझकर बहुमानाचारनामा ज्ञानका अंग ध्यानपूर्वक पालना चाहिये । इस अंगकी परवा नहीं करनेसे न तो शिष्य और गुरुमें शिष्य-गुरु संबंध ही रहता है और न समीचीन ज्ञानकी उपासना ही होती है । परिणाम यह होता है कि पुरुष कुमतिज्ञानी बन जाते हैं । सूत्र, वार्तिक, श्लोक, गाथा आदिको न भूलनेका नाम उपधानाचार है । मूलग्रंथका स्मरण रखना अत्यावश्यक है; बिना उसके शब्दविपर्यास और अर्थविपर्यास होनेकी पूरी संभावना रहती है, इसलिये मूलपाठकी धारण रखना नितांत आवश्यक है; इसीका नाम उपधानाचार है ।
ज्ञानको गुरुको और शास्त्रको नहीं छिपाना अनिवाचार कहलाता है । ज्ञानके छिपानेसे ज्ञानावरणकर्मका बंध होता है । ज्ञानका तो जितना प्रसार किया जाय उतनी ही उसकी वृद्धि होती है, उसे जितना छिपाकर रक्खा जाय उतना ही वह मंद कुठित तथा विस्मृत होता जाता है;
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