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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
काल है । जो सामायिकका समय है उससे अतिरिक्त समय में सामायिकमें उतना चित्त भी नहीं लग सकता, अन्यान्यबाधाएँ भी उपस्थित हो सकती हैं इसलिये प्रातःकाल, मध्याह्नकाल, सायंकाल सामायिकके लिये नियत हैं । उसीप्रकार स्वाध्यायकाल भी नियत हैं, नियत समय से अतिरिक्तकाल में स्वाध्याय करनेमें व्यग्रता हो सकती है, अन्याय बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं, प्रमाद आ सकता है, बुद्धिमें मांद्य आ सकता है, इत्यादि अनेक विघ्न आ सकते हैं; इसलिये आगमद्वारा नियतकालमें ही स्वाध्याय करना चाहिये । यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि समयका प्रभाव आत्मापर पड़ता है । जो निर्मलता प्रातःकाल परिणामोंमें रहती है वह दूसरे समय में नहीं रहती । जैसे रात्रिको कोई बात ध्यान में अथवा स्मरण में नहीं आती है वह प्रातःकाल आ जाती है, इससे सिद्ध होता है कि समय भी परिणामोंकी उज्ज्वलता एवं मलिनताका कारण है । इसलिये बुद्धिमान पुरुषोंको उचित है कि जो समय आगभमें शास्त्रस्वाध्याय एवं अध्ययनका बताया गया है उसीमें वह करना चाहिये । किस समय में अध्ययन करना चाहिये, अथवा किसमें नहीं करना चाहिये इसका विधान इसप्रकार हैगोसर्गकाल, प्रदोषकाल, प्रदोषकाल और विरात्रिकाल, इन चार उत्तमकालों में पठनपाठनादिरूप स्वाध्याय करनेको कालाचार कहते हैं । चारों संध्याओं की अंतिम दो दो घड़ियोंमें, दिग्दाह, उल्कापात, वज्रपात, इंद्रधनुष, सूर्य-चंद्रग्रहण, तूफान, भूकंप आदि उत्पातोंके समयमें सिद्धांतग्रंथों का पठनपाठन वर्जित है । हां, स्तोत्र आराधना धर्मकथादिके ग्रंथ बांचने में कोई हानि नहीं है । जिनवाणीकी भक्ति हृदयमें रखकर विनयपूर्वक स्वाध्याय करनेको विनयाचार कहते हैं । विनय दो प्रकार है - ९ वाह्य २ अभ्यंतर ।
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१. मध्याहसे दो घड़ी पहिले और सूर्योदयसे पश्चात् और रात्रिसे दो घड़ी पहलेका काल । ३. पहलेका काल । ४. मध्यरात्रिसे दो घड़ी पश्चात् और सूर्योदयसे दो घड़ी पहलेका काल ।
दो घड़ी पीछेका काल । २० मध्याह्न के दो घड़ी रात्रिके दो घड़ी उपरांत और मध्यरात्रिसे दो घड़ी
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