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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ही ज्ञान प्रत्यक्ष हैं; मति और श्र तज्ञान ये दो परोक्ष हैं । परोक्षज्ञानके पांच भेद हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । किसी बातको कालांतरमें भूलना नहीं किंतु ध्यानमें रख लेना, उसे 'स्मृतिज्ञान' कहते हैं । जैसे-'हमने श्रीस्वर्णगिरि निर्वाणक्षेत्र की बंदना की, पीछे १ वर्ष बाद घर बैठे ही यह ध्यान आया कि श्रीस्वर्णगिरिक्षेत्र कितना मनोज्ञ था, वहांपर ज्ञानगुदड़ी नामकी विशाल शिला कैसी संदर थी और श्रीचंद्रप्रभस्वामी तथा चंदेरीवालोंके मन्दिरमें श्रीचंद्रप्रभस्वामी आदिनाथस्वामी और श्रीवर्धमानस्वामीकी प्रतिमायें कितनी मनोज्ञ थीं। इसी धारणावाले ज्ञानका नाम स्मृतिज्ञान है । जो ज्ञान प्रत्यक्ष और स्मरण दोनों ज्ञानोंकी सहायतासे एक तीसरी पर्यायमें उत्पन्न होता है, उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे-'हमने पहले श्रीसम्मेदशिखरकी बंदनाकी, दूसरे वर्ष फिर हम बंदनार्थ वहां गये और श्रीपर्वतपर चढ़ते समय मनोहर शब्दवाले सीतानालेपर द्रव्य धोकर चरणोंके प्रक्षालके लिये जल लिया; उससमय हमें पहला भी स्मरण आया कि जिस पत्थरपर बैठकर हम आज द्रव्य धो रहे हैं, पारसाल भी इसीपर बैठे थे।' इसप्रकार वर्तमानका प्रत्यक्ष और पहलेका स्मरण, इन दोनों ज्ञानोंकी सहायतासे यह एक तीसरी ही ज्ञानकी पर्याय उत्पन्न हुई कि 'यह वही पाषाण है जिसे हमने पारसाल भी देखा था ।' इस ज्ञानको न तो प्रत्यक्ष ही कह सकते हैं, क्योंकि पारसालका ज्ञान भी शामिल है, और न केवल स्मृति ही कह सकते हैं, क्योंकि वर्तमान प्रत्यक्ष भी शामिल है; और न दोनों ही कह सकते हैं, क्योंकि दो ज्ञान उपयोगात्मक एक साथ नहीं हो सकते । इसलिये दोनोंका जोड़-रूप यह तीसरा ही 'प्रत्यभिज्ञान' नामका ज्ञान है। किसी वस्तुकी व्याप्ति अर्थात अविनाभाव-संबंधका ज्ञान कर लेना, इसीका नाम 'तर्क' है। जैसे-धूएँको सदा अग्निके साथ रहतेहुये देखकर यह
१. कुछ लोग तर्कका अर्थ तर्कणाशील बुद्धि करते हैं, अर्थात् किसी बातपर तर्क-वितर्क
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