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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
दृष्टिदोष अथवा प्रकाशाभाव से ऐसा होता है । अंतरंगमें ज्ञानको दूषित बनानेवाला वहां कारण न होनेसे सम्यग्दृष्टिका बोध सदा सम्यकत्रोध ही कहलाता है । इसीप्रकार स्वानुभूतिरूप ज्ञानचेतनाकी लब्धि होनेसे उपयोगांतर होनेपर भी उपयोग सदा ज्ञानचेतनारूप ही कहा जाता है । स्वानुभूत्यावरण कर्मके क्षयोपशम एवं मिथ्यात्वकर्मके अभाव में उत्पन्न होनेवाली ज्ञानचेतनाको चारित्रमोहका उदय और ज्ञानका उपयोगांतर हटा नहीं सकते, और न सर्प में रस्सीके बोधके समान अभिलाषा - विहीन रागक्रिया कर्मचेतनाको हीं उत्पन्न कर सकती है । इसलिये यह असंभव है कि लब्धि में चेतना ज्ञानरूप हो और उपयोग में वह कर्मरूपसे प्रगट हो । यहां पर विचार करनेकी बात यह है कि जिस रागक्रिया से कर्मचेतना होती है अथवा भोगोंकी जिस अनुरकिसे कर्मचेतना एवं उनके अनुभवन से कर्म फलचेतना होती है, वह रागक्रिया अथवा भोगों में अनुराग अभिलाषापूर्वक होता है । अभिलाषा अथवा रुचिपूर्वक ही रागद्व ेषसे किये गये कामों द्वारा दुःखवीज कर्मबंध होता है तथा वही बंधकारणभूत रागद्वेषपूर्वक होनेवाली बुद्धिपूर्वक किया कर्मचेतना कही जाती है । परन्तु सम्यग्दृष्टिकी जितनी भी क्रियाएं हैं, वे न तो बंधकी कारण ही कही जाती हैं और न रागक्रिया के नामसे ही कही जाती हैं । उसके रागभाव होते हुए भी उसे रागक्रियारहित कहा गया है । इसीसे सिद्ध होता है कि जहां बंधकारणभूत अभिलापा रुचिपूर्वक रागक्रिया है, वही कर्मचेतनाके नामसे कही जाती है । सम्यग्दृष्टि बंध करता है, परन्तु उसका बंध 'बंध' नहीं कहा जाता, प्रत्युतः उसकी क्रिया निर्जराका कारण कही जाती है । जैसा कि भाषा छन्दसे कहा गया है - "ज्ञानीको तो भोगनिर्जरा हेतु हैं, अज्ञानीको भोगबन्ध फल देते हैं ।" इसी बातको पंचाध्यायीकारने इसप्रकार कहा है
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“आस्तां न बंधहेतुः स्याज्ज्ञानिनां कर्मजा क्रिया । चित्रं यत्पूर्ववद्धानां निर्जरायै च कर्मणाम् ॥ २३० ॥ क्रिया साधारणी वृत्तिः ज्ञानिनोऽज्ञानिनस्तथा । अज्ञानिनः किया बंध हेतुर्न ज्ञानिनः कचित् ॥ २२९॥”
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