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________________ १३० ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय ने यही निष्कर्ष निकाला है कि जहां सम्यक्त्व है वहां ज्ञानचेतना अवश्य है । यथा"तस्मात्सम्यक्त्वमेकं स्यादर्थात्तल्लक्षणादपि । तद्यथावश्यको तत्र विद्यते ज्ञानचेतना ॥" इसका अभिप्राय यही है कि सम्यग्दर्शन वास्तवमें एकरूप ही है, उसके सराग वीतराग आदि भेद नहीं हैं, और जहाँ सम्यक्त्व है वहां नियमसे ज्ञानचेतना है। ऊपरके कतिपय श्लोकों-द्वारा यह सिद्ध किया है कि सम्यग्दृष्टिके कर्मचेतना और कर्मफलचेतना क्यों नहीं होती । अब नीचे कुछ श्लोकों द्वारा यह सिद्ध करते हैं कि सम्यग्दृष्टिके हर समय ज्ञानचेतना ही रहती है। _ "किंच सर्वस्य सद्दष्टेनित्यं स्याज्ज्ञानचेतना । अव्युच्छिन्नप्रवाहेण यद्वा खंडैकधारया ॥" __ इस श्लोकमें 'सर्वस्य-नित्य-अव्युच्छिन्नप्रवाहेन-अखण्डकधारया' ये चारों ही पद स्पष्ट प्रगट करते हैं कि सम्यग्दृष्टिको चाहे किसी नामसे क्यों न कहा जाय, उसके हर समय अव्युच्छिन्न प्रवाहसे, निरंतर रूपसे, अखण्ड धारारूपसे ज्ञानचेतना रहती है । नित्य ज्ञानचेतना क्यों रहती है, इसके लिये हेतु यह है"हेतुस्तत्रास्ति सधीची सम्यक्त्वेनान्वयादिह । ज्ञानसंचेतनालब्धिनित्या स्थावरणव्ययात् ।।८१३।।" अर्थात् सम्यक्त्वके साथ ज्ञानचेतनालब्धि नित्य रहती है, उसके आवरण-कर्मका क्षय हो जाता है; इसलिये अन्वयरूपसे सम्यक्त्वके साथ ज्ञानचेतना रहती है । आचार्य बारबार स्पष्ट कथन करते हैं कि जहां सम्यक्त्व है वहां सदा शुद्धात्माकी ही उपलब्धि है। यदि उपयोगांतर-अवस्थामें किसी समय शुद्धात्मोपलब्धिका अभाव कहा जायगा तो वैसी अवस्थामें सम्यक्त्वका भी अभाव कहना चाहिये । इसीको इस श्लोकार्धसे उन्होंने पुष्ट किया है-“शुद्धा चेदस्ति सम्यक्त्वं न चेच्छुद्धा न सा सुदृक्' अर्थात् यदि शुद्धचेतना है तो सम्यक्त्व है, यदि शुद्धचेतना नहीं है तो सम्यक्त्व भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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