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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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और उसी अवस्थामें ज्ञान वेतना होती है। किन्हीं किन्हीं पुरुषोंके 'प्रमत्तजीवोंके विकल्पात्मक होनेसे उनके शुद्धचेतना नहीं हो सकती हैंइस प्रकारकी वासना लगी हुई है, वह ठीक नहीं है । भावार्थ-जो लोग ऐसा कहते हैं कि 'प्रमत्तगुणस्थान पर्यंत बुद्धिपूर्वक राग होता है, इसलिये वहां तक ज्ञान और सम्यक्त्व दोनों ही सविकल्पक हैं; सविकल्पअवस्थामें ज्ञानचेतना भी नहीं होती है, अर्थात् छठे गुणस्थानसे ऊपर ही ज्ञानचेतना होती है, नीचे नहीं' उनके लिये आचार्य कहते हैं कि-ऐसा कहनेवाले यथार्थवस्तुके विचारक नहीं हैं । क्यों नहीं हैं, सो बताते हैं'यतः पराश्रितो दोषो गुणो वा नाश्रयेत् परं । परो वा नाश्रयेद्दोषं गुणंचापि परोश्रितं ॥९१७॥"
अर्थ-क्योंकि दूसरेके आश्रयसे होनेवाला गुणदोष दूसरेके आश्रय नहीं हो सकता; इसीप्रकार दूसरा भी दूसरेके आश्रयसे होनेवाले गुणदोषोंको अपने आश्रित नहीं बना सकता । अर्थात् जिस आश्रयसे जो दोष अथवा गुण होता है, वह दोष अथवा गुण उसी आश्रयसे हो सकता है; अन्य किसी आश्रयसे नहीं हो सकता । यहांपर जो प्रमादावस्थामें रागद्वषपूर्वक प्रवृत्तिके समय शुद्धचेतनाका अभाव मानते हैं, उन्हींके उत्तर में यह ऊपर का श्लोक कहा गया है । और भी देखिये
__“पाकाच्चारित्रमोहस्य रागोस्त्गैदपिकः स्फुटं ।
सम्यक्त्वे स कुतो न्यायाज्ज्ञानेवाऽनुदयात्मके ।।९१८॥" . अर्थ-चारित्रमोहनीयकर्मका पाक होनेसे राग होता है । राग आत्माका औदयिकभाव है, अर्थात् कर्मों के उदयसे होनेवाला है । वह औदयिकभाव अनुदयस्वरूप सम्यक्त्व अथवा ज्ञानमें किसप्रकार हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । और भी विशेष स्पष्ट करते हैं"अनिघ्ननिह सम्यक्त्वं रागोयं बुद्धिपूर्वकः । नूनं हेतं क्षमो न स्यात् ज्ञानसंचेतनामिमां ॥९१९॥"
अर्थ-बुद्धिपूर्वक रागभाव सम्यक्त्वका घात नहीं कर सकता है; इसलिये वह सम्यक्त्वके साथ अविनाभावी ज्ञानचेतना ( लन्धिरूप ) का
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